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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि देव एक जिनचन्द, सर्व जीवन सुखदायक। देव एक जिनचन्द, प्रकट कहिये शिवनायक ॥ देव एक त्रिभुवन मुकुट, तास चरण नित वंदिये । गुण अनंत प्रगटहि तुरत, रिद्धि वृद्धि चिरनंदिये ॥१५॥
यह भव-समुद्र बहुत विकट है, उसे पार करना कोई आसान काम नही है, किन्तु भक्त-कविको यह पूरा विश्वास है कि परमात्माके शुद्ध ध्यानमे वह पार हो सकता है,
"विकट मौसिंधु ताहि तरिबे को तारू कौन,
___ताकी तुम तीर आये देखो दृष्टि धरिकै । अबकै संमारे ते पार भले पहुँचत हो,
अबकै संभारे बिन बूड़त हो तरिक॥ बहुर्यो फिर मिलबो नाहिं ऐसो है संयोग येह,
देव गुरु ग्रन्थ करि भाये हिय धरिक । ताहि तू विचारि निज आतम निहारि 'भैया'
धारि परमातमाहि शुद्ध ध्यान करिकै ॥७॥" पार्श्व जिनेन्द्रके भक्तमे अपने भगवान्के प्रति अगाध निष्ठा है । वह कहता है कि हे जीव ! तू काहेको इधर-उधर भटकता फिरता है, क्यो तू अन्य देवीदेवताओको सिर झुकाता है। तेरी तो दिन-रातको चिन्ता भगवान् पार्श्व प्रभुकी सेवासे ही नष्ट हो जायेगी,
"काहे को देशदिशांतर धावत, काहे रिझावत इन्द नरिंद। काहे को देवि औ देव मनावत, काहे को शीस नवावत चंद ॥ काहे को सूरज सों कर जोरत, काहे निहोरत मढ़ मुनिंद ।
काहे को सोच करे दिन रैन तू , सेवत क्यों नहिं पार्श्व जिनन्द ॥१४॥ भगवान्के नामको हृदयमे धारण करनेसे हृदय भगवत्त्वके गुणोसे ओतप्रोत हो जाता है। उसमे कुछ ऐसी सद्वृत्तियां आ जाती हैं, जिससे वह सांसारिक दुःख-सुखोंसे छुटकारा पा ही जाता है। भगवान्के नामकी महिमामे अपार शक्ति है,
१. वही, फुटकल कविता, पृ०६१। २. वही, शत अष्टोत्तरी कवित्त, पृ०६ । ३. वहीं, फुटकल कविता, पृ० ६१ ।