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________________ जैन मक्क कवि : जीवन और माहित्य भैयाके पदोमे कुछ ऐमा आकर्षण है, जिससे पाठक बच नहीं पाना । एक भक्त भगवान् जिनेन्द्रकी पुप्पाने पूजा करता हुआ कहना है कि हे भगवन् ! इस कामदेवने समूचे विश्वको जीत लिया है, इसी कारग इनको घमण्ड भी बहुत अधिक हो गया है। मुझे पूरा विश्वास है कि आपके चरणोकी शरणमे जानेसे प्रबल कामदेवकी निर्दयताका मै शिकार न हो पाऊंगा । देविए, "जगत के जीव जिन्हें जीत के गुमानी मयौ, ऐसो कामदेव एक जोधा जो कहायो है। ताके शर जानियत फलनि के वृन्द बहु, केतकी कमल कुंद केवरा सुहायो है। मालती सुगंध चारु बेलि की अनेक जाति, चंपक गुलाब जिन चरण चढ़ायो है। तेरी ही शरण जिन जारे न बमाय याको, __ सुमत सों पूजे तोहि मोहि ऐसो भायो है ।।५॥" यह मन मंसारके विभिन्न रसोंमे भटकता फिर रहा है। उमको सम्बोधन करते हुए कवि कहता है कि हे मन! तू कहां दौड़ा हुआ चला जा रहा है, इस देह-रूपी देवालयमे भगवान् केवली रहता है, तू उसकी सेवा क्यों नहीं करता ? "आंख देखै रूप जहां दौड़ तू ही लागे तहां, सुने जहां कान तहां त् ही सुने बात है। जीम रस स्वाद धेरै ताको त् विचार करे, नाक सूंधै बास तहां तू ही विरमात है ।। फर्स की जु पाठ जाति तहां कहो कौन मांति, जहां तहां तेरो नांव प्रकट विख्यात है। याही देह देवल में केवलि स्वरूप देत्र, ताकी कर सेव मन कहां दौड़ जान है ॥१७॥ भक्त जबतक अपने आराध्यको सर्वोत्कृष्ट न समझेगा, उसमें एकतानता नहीं आ सकती । भगवान् जिनेन्द्र ऐसे है जिनके यशको तीनो लोक गाते है । वे सुखदायक और शिवनायक है। उनके दर्शन मात्रसे ही पातक कांप उठते हैं और अनन्त प्रकारके गुण तथा ऋद्धियां प्रकट हो जाती है, "देव एक जिनचंद नाव, त्रिभुवन जस जंपै । देव एक जिनचंद, दरश जिह पातक कंपै॥ १. जिनधर्म पीसिका, ब्रह्मविलास, पृ० २१५ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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