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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
असुहदल कम्म मल पडल निवासणं, तात, करवाणि तुह संथवं बहुगुणं ॥२-३॥”
सुर-भवनोमे गगन, पाताल और भूमण्डलमे, नगरी, पुरी, नीरनिधि और नारि-नर और किन्नर, सीमन्धर स्वामी के
मेरु पर्वतकुलोंमें, देव-देवियोंके समूह, आदरपूर्वक गीत गाते है,
पायालि, भूमंडले,
" सुर-भवणि, गयणि, नयरि, पुरि, नीरनिहि, मेरु- पब्वय - कुले | देव - देवी- गणा, नारि - नर - किन्नरा, तुह्य जस, नाह, गायंति सादर परा ॥ ७ ॥"
वे नगर धन्य है, जिनमें भव्यजनोके सब संशयों को हरनेवाले सीमन्धर स्वामी विहार करते हैं । भगवान् कामघट, देवमणि और देवतरुके समान है। उनका नाम लेने मात्र से ही सब इच्छाएँ पूरी हो जाती है,
"धन ते नयर जहिं सामि सीमंधरो,
विहरए, भविअ जण - सब्व-संसयहरो ।
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कामघट, देव-मणि, देव-तरु फलियउ, तीह धरि जीह रहिं, सामि, तरं मिलियउ ॥१३॥"
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भक्त - विकी तीव्र इच्छा है कि उसका आगामी जन्म पूर्व विदेहमे हो, जिससे वह सीमन्धर स्वामीके चरणोंमें बैठकर उनका दिव्य उपदेश सुन सके । वह वहाँ स्वामी के गुणोके गीत गायेगा, और उनके रूपको देखकर प्रसन्न होगा । उसे पूर्ण विश्वास है कि स्वामीके शासन में दीक्षा लेनेसे कर्म गल जायेंगे और मोक्ष प्राप्त होगा,
"कर-जुअल जोडि करि, वयण तू निसुणिसो, बाल जिम हेल देइ, पाय तुह पणमिसो । महुर सरि तुम्ह गुण-गहण हउं गायसो, निय - नयणि रोमंचिउ जोइसो ॥
रूव
तुम्ह पासि द्विड, हणिअ कम्माण,
चरण
परिपालिसो, केवल सिरिं पामिसो ॥१४- १५ ।। "