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________________ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि सभी भगवान्की भक्ति भोग-पद, राज-पद, चक्री पद और इन्द्र- पद, विभूतियाँ उपलब्ध होती है और परमपद भी मिलता है, "भोगपद, राजपद, नाण-पद, संपदं, चक्क - पद, इन्द्र- पद, जाब परमं पदं । तुज्झ भत्तीइ सब्वं पि संपज्जए, एह माहप्प तुह सयल जगि गज्जए ॥१६॥" ४२ इस स्तवनमे इक्कीस पद्य है । प्रथम बीसकी प्रत्येक पंक्ति में २० मात्राएँ है । १० के बाद विराम है । आचार्य हेमचन्द्रने छन्दोनुशासनमें इस छन्दका नाम 'आवलि' दिया है । २१वाँ पद्य हरगीतिका छन्दमे हैं ।' स्तवनकी भाषा में लालित्य है और भावोमें स्वाभाविकता । ४. मेरुनन्दन उपाध्याय ( वि० सं० १४१५ ) मेरुनन्दन के दीक्षागुरुका नाम श्री जिनोदयमूरि था । सूरिजीका जन्म वि० सं० १३७५ में, रुद्रपाल श्रेष्ठीकी पत्नी घारलदेविकी कुक्षिसे, प्रह्लादनपुर नामके नगरमें हुआ था । उन्होंने वि० सं० १३८२ में श्रीजिनकुशलसूरि के पास दीक्षा ली, और उनका नाम सोमप्रभ रखा गया । वे वि० स० १४०६ में वाचनाचार्य पदपर प्रतिष्ठित हुए । श्रीतरुणप्रभसूरिने उनको वि० सं० १४१५ मे, 'सूरिपद' और 'जिनोदय' अभिधान दिया। सूरिजीका वि० सं० १४३२ में समाधिपूर्वक स्वर्गवास हुआ। श्रीमेरुनन्दनने, श्रीजिनोदयसूरिसे, वि० सं० १४१५ के उपरान्त दीक्षा ली होगी। उनके 'जिनोदयसूरि विवाहलउ' की रचना वि० सं० १४३२ में हुई थी । अतः मेरुनन्दन उपाध्याय और जिनोदयसूरिका सत्ता समय एक ही था । मेरुनन्दन उपाध्यायकी तीन रचनाएँ उपलब्ध है : 'जिनोदयसूरि विवाहलउ', 'अजितशान्तिस्तवनम्' और 'सीमन्धर जिनस्तवनम्' । तीनो ही भक्तिसे सम्बन्धित है। पहले में गुरु भक्ति और अवशिष्ट दोमें तीर्थंकर भक्ति है । १. Ancient Jaina Hymns, PP. 89-90. २. श्री मेरुनन्दन उपाध्याय, 'श्री जिनोदयसूरि विवाहलड', श्री अगरचन्द नाहटा, ऐतिहासिक जैन -काव्य संग्रह, पृ० ३६०, कलकत्ता, वि० सं० १९६४ । तथा जैन-स्तोत्र सन्दोह, प्रथम भाग, प्रस्तावना, पृ०७३, अहमदाबाद, १९३२ ई० ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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