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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
अन्त
"मंगल करउ जिन पास आस पूरण कलि सुरतर, मंगल करउ जिन पास दास जाके सब सुरनर । मंगल करउ जिन पास, जास पय सेवई सुरपति, मंगल करउ जिन पास, तास पय पूजइ दिनपति । मुनिराज कहई मंगल करउ, सपरिवार श्री कान्ह सुत्र, बावन बरन बहु फल करहु सघपति हीरानंद तुव ॥५७॥"
४६. हेमविजय (वि० सं० १६७०)
हेमविजय वृद्धशाखाके प्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरिके प्रशिष्य, और विजयसेनसूरिके शिष्य थे। हीरविजयमूरिका असाधारण व्यक्तित्व था, उनमे विद्वत्ता भी उत्तम कोटिकी थी। सम्राट अकबरने उन्हे वि० सं० १६३९ मे दो बार आमन्त्रित किया था। उनका अलौकिक स्वागत हुआ, और उन्हे जगद्गुरुकी पदवी दी गयी।' श्री विजयसेनसूरिको भी सम्राट अकबरने वि० सं० १६५० मे निमन्त्रण देकर बुलाया था। उन्हे सवाई हीरविजयकी उपाधिसे विभूषित किया गया था।
श्री हेमविजयने आचार्य हीरविजयकी महत्ताका उद्बोधन करनेवाली अनेकानेक स्तुतियोको रचना संस्कृतमे की थी। उनमे से एक तो अभीतक शत्रुजय पहाड़के शिलालेखमे अंकित है । इसमे ६७ श्लोक है। अपने गुरु विजयसेनसूरिकी प्रशंसामें उन्होंने 'विजय प्रशस्ति' का निर्माण किया। यह भी संस्कृतमे ही लिखी गयी है। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'कथारत्नाकर'की भी रचना की। इसकी प्रसिद्धि बहुत अधिक है।
हेमविजय हिन्दोके भी उत्तम कवि थे। उन्होने हीरविजयसूरि और विजयसेनसूरिकी स्तुतिमें छोटे-छोटे बहुत-से हिन्दी पद्य बनाये है। तीर्थकरोंकी स्तवनाके भी कुछ पद रचे हुए मिलते है । 'मिश्रबन्धुविनोद' मे भी इनका उल्लेख है । वहां इनके वि० सं० १६६६ मे बनाये हुए स्फुट पदोंकी बात कही गयी है।
१. vide P P. 265-276 Bhandarkar commemoration Volume. २. मोहनलाल दुलीचन्द देसाई, 'Jain Priests at the Court of Akbar', ___ भानुचन्द्र गणि, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, भूमिका, पृष्ठ है । ३. पं. नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, १६१७, पृष्ठ ४८ । ४. मिश्रबन्धुविनोद, प्रथम भाग, पृष्ठ ३६७ ।