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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य नेत्रहीन होनेके कारण उनके पदोंमें हृदयको गहरी अनुभूति है । वे हिन्दीके परिचयमात्रको ही नहीं, अपितु प्रौढ़ कवित्व शक्तिको प्रकट करनेमे समर्थ है | नेमिनाथके पढ़ नेमीश्वर राजुलके विवाह द्वारसे वापस लौट आये । उग्रसेनके द्वारपर बंधे पशुओं की करुण पुकारसे उनके हृदयमे वैराग्यने जन्म लिया, और वे जैन मुनि होकर गिरनारपर तप करने चले गये । उस समय राजुलकी आतुरताका हेमविजयने सफल चित्र खींचा है । राजुल बेचैन होकर गिरनारकी ओर दौड़ उठी । सखियोसे कहा कि तुम एक क्षण यहाँ ही खड़ी रहो, किन्तु सखियोंने उसे पकड़ लिया, तो वह निहोरे करके कहने लगी कि तुम 'अबही तबही कबही जबही', अर्थात् अब, तब, कत्र, जब चाहो यदुरायसे जाकर कहो, "हे नेमजी, तोरण-द्वारसे वापस क्यों लौट आये।" वह पद्य देखिए, १५७ "कहि राजमती सुमती सखियान कूं, एक खिनेक खरी रहुरे । सखिरी सगिरी अंगुरी मुही बाहि करति बहुत इसे निहुरे ॥ अबही तबही बही जबही, यदुराय कूं जाय इसी कहुरे । मुनि हेम के साहिब नेम जी हो, अब तोरन तें तुम्ह क्यूं बहुरे ॥” राजुल मानी नहीं । अकेली हो चल पड़ी। यहाँ लोक-मर्यादाका बन्धन उसे बाँध न सका । राजुलको दृष्टिमे वह नेमीश्वरकी पत्नी थी । भारतीय कन्या एक बार पति चुनती है, बार-बार नही । इसी कारण किसीकी परवाह किये बिना वह उस ओर दौड़ गयी । उसका गन्तव्य स्थान दूसरेका पति नहीं, किन्तु अपना ही पति था, इसलिए कुल - कानिका कोई प्रश्न उपस्थित नही होता । नयी-नयी घटाएँ उमड़ रही हैं । इधर-उवरसे बिजली चमक रही है । पियुरे-पियुरे कहकर पपीहा बिलला रहा है। उधर तो आसमानसे बूँदें टपक रही हैं और इधर 'उग्रसेनलली'की आँखों आँसुओंकी झड़ी लग गयी है । वह मुनि हेमविजयके साहब नेमीश्वरको देखनेके लिए अकेली ही निकल पड़ी है, "घनघोर घटा उनयी जु नई, इत उत चमकी बिजली । पियुरे पियुरे पपिहा बिललाति जु, मोर किंगार करंति मिली । बिच बिन्दु परे हग आंसु झरें, दुनि धार अपार इसी निकली । मुनि हेम के साहब देखन कूं, उग्रसेन लली सु अकेली चली ॥' 37
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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