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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
लिए लिखी गयी थी। यहां पं० सुखलालजीका यह अभिमत कि "उपाध्यायजी थे पक्के जैन और श्वेताम्बर ।" ठीक ही प्रतीत होता है उन्होने 'अध्यात्म-मत खण्डन' में भी दिगम्बर मान्यताका निराकरण किया है। यदि उपाध्यायजी इस श्वेताम्बर-दिगम्बरके ऊपर उठ पाते तो आचार्य हेमचन्द्रसे भी बड़े सिद्ध होते। आजका युग समन्वयवादी है । उसमे उपाध्यायजीका स्थान निर्धारित करते समय यह ही एक 'अटकाव' बना रहेगा। ___ 'दिक्पट चौरासी बोल' की एक हस्तलिखित प्रति १९वी शताब्दीको लिखी हुई अभय जैनग्रन्थालय बीकानेर में मौजूद है। इसमे १६१ पद्य है। प्रारम्भिक पद्य इस प्रकार है,
"सुगुणध्यान शुमध्यान, दान विधि परम प्रकाशक । सुवट मान प्रमान, आन जस मुगति अभ्यासक ॥ कुमत वृन्द तम कन्द, चन्द परिद्वन्द्व निकाशक ।
कचिअ मन्द मकरन्द, सन्त आनन्द विकासक ॥ यश वचन रुचिर गंभार निजे, दिगपट कपट कुठार सम ।
जिन वर्धमान सोई वंदिय, विमल ज्योति पूरण परम ॥" साम्यशतक
इसमे १०५ पद्य है। यह श्री विजयसिंहसूरिके 'साम्यशतक'को आधार मानकर मुनि हेमविजयके लिए रचा गया था। इसकी एक हस्तलिखित प्रति उपर्युक्त ग्रन्थालयमें ही संकलित है। आदि और अन्तके दो पद्य देखिए, आदि,
"समता गंगा मगनता, उदासीनता जात ।
चिदानन्द जयवन्त हो, केवल भानु प्रमात ॥" अन्त,
"मावन जाकू तत्त्व मन, हो समता रस लीन । ज्युं प्रगटे तुझ साहब सुख, अनुभव गभ्य अहीन ॥"
५७. महात्मा आनन्दघन (जन्म वि० सं० १६८०, मृत्यु वि० सं० १७४५)
आनन्दधन एक जैन साधु थे। किन्तु यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे तपागच्छके थे अथवा खरतरगच्छके । उनको स्वयं गच्छोंसे कोई ममत्व नहीं
१. वही, पृ०१।