________________
जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
२०३
यशोविजयजी व्याख्यान दे रहे थे। उस सभाम एक ओर उदासीन-सा वृद्ध साधु बैठा था । वे आनन्दघन थे। उनसे भेंट हुई । यशोविजयजी इस भांति प्रभावित हुए कि अपनेको रोक न सके । अटपदी उनके भावोद्गारोंका सही प्रतीक है । यशोविजय जिस अध्यात्मरसके पण्डिन थे, वह ही आनन्दघनकी अनुभूतियोमे गहरा उतरा था । आनन्दधन 'अध्यात्मरस' ही थे। यह ही तो कारण था कि यशोविजय-जैसा विद्वान् इन्हें देख भाव-विमुग्ध हो उठा। उनकी संगतिसे यशोविजयमे भी अध्यात्मरसकी लहरें उठने लगी थी। इमीको उन्होंने लिखा है कि 'पारस'की संगतिसे लोहा भी 'स्वर्ण' हो जाता है,
"आनन्दधन के संग सुजल हो मिले जब, तव आनन्दसम भयो सुजस । पारस संग लोहा जो फरसत, कंचन होत ही ताके कस ॥ खीर नीर जो मिल रहे आनन्द,जस सुमति सखी के मंग भयो है एक रस।
भव खपाइ, सुजस विलास भये सिद्धस्वरूप लीये घसमस ॥" आनन्दघन मार्गमे चलते-चलते गा उठते थे। उनके मुखपर लोकसे न्यारा रूप सदैव बरसता रहता था। वे कभी सुमति सखीसे दूर नहीं होते । उनसे मिलकर यशोविजयको गौरवका अनुभव हुआ,
"मारग चलत-चलत गात, आनन्दवन प्यारे, रहत आनन्द भरपूर ।। ताको सरूप भूप निहुँ लोक थे न्यारो, बरखत मुख पर नूर ॥ सुमति सखी के संग, नितनित दोरत, कबहुं न होत ही दूर ॥ जशविजय कहे सुनो आनन्दधन, हम तुम मिले हुजूर ॥" आनन्दघनको पहचाननेके लिए अपने चित्तके भीतर भी उसी आनन्दकी अनुभूति होनी चाहिए। आनन्दधन आनन्दके ही बने है। वे आनन्दक अक्षय खजाने है। उन्होने 'सहज अलखपद' के सुखका अनुभव किया है। आनन्दघनके सही दर्शनके लिए इसी भावभूमि तक उठना होगा,
"आनन्द की गत आनन्दघन जाणे ॥ वाइ सुख सहज अचल अलख पद, वा मुख सुजस बखाने ॥ सुजस विलास जब प्रगटे आनन्दरस, मानन्द अखय खजाने ।
ऐसी दशा जब प्रगटे चित्त अंतर, सोहि आनन्दधन पिछाने ॥" दिक्पट चौरासी बोले ___ यह रचना पं० हेमराजजीके "सितपट चौरासी बोल' का खण्डन करने के १. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग ४, उदयपुर, सन् १९५४,
पृ० १३६ ।