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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
___ "जैन भक्ति-काव्यको पृष्ठभूमि' की भूमिकामे लिखा जा चुका है कि जैन आचार्य केवल दार्शनिक ही नहीं होते थे, वे कुछ-न-कुछ भक्तिसम्बन्धी साहित्य भी रचते अवश्य थे। श्री यशोविजयजीने गुजरातीमे अनेक स्तवन, सज्झाय, गीत और वन्दनाओंका निर्माण किया है । बनारस और आगरेमे रहनेके कारण हिन्दीपर भी उनका अच्छा अधिकार था। उनका 'जसविलास' हिन्दीका प्रसिद्ध काव्य है । इसके अतिरिक्त 'आनन्दघन अष्टपदी', 'दिग्पट ८४ बोल' और 'साग्य शतक' भी उनकी हिन्दीकी ही कृतियाँ हैं। जसविलास
यह काव्य, 'मज्झाय, पद अने स्तवन संग्रह' नामके मुद्रित संकलनमें छपा है। इनमे ७५ मुक्तक पद है । सभी जिनेन्द्रको भक्तिसे सम्बन्धित है । एकमे लिखा है कि भक्त ज्योंही प्रभुके ध्यानमें मग्न हुआ कि उसकी समूची दुविधा पल-मात्रमे नष्ट हो गयी। भक्तको आराध्यकी निष्ठामें, हरि-हर और ब्रह्माको निधियां भी तुच्छ दिखाई देती हैं। भक्त तो अब अपने प्रभुको अक्षय निधिका स्वामी है। उसके रसके आगे उसे और कोई रस भाता ही नहीं,
"हम मगन भये प्रभु ध्यान में। विसर गई दुविधा तन-मन की, अचिरा सुत गुन गान में । हरि-हर-ब्रह्म-पुरन्दर की रिधि, श्रावत नहिं कोउ मान में। चिदानन्द की मौज मची है, समता रस के पान में ॥ इतने दिन तूं नाहिं पिछान्यो, जन्म गंवायो अजान में । अब तो अधिकारी है बैठे, प्रभु गुन अखय खजान में ॥ गई दीनता समी हमारी, प्रभु तुझ समकित दान में ।
प्रभु गुन अनुभव के रस आगे, आवत नहिं को ध्यान में ॥" आनन्दघन अष्टपदी
इसमें हिन्दोके जैन सन्त आनन्दघनकी स्तुति की गयी है। कहा जाता है कि उपाध्याय यशोविजय और आनन्दघनजीकी भेंट हुई थी। आनन्दघन सदैव अध्यात्मरसमें मग्न रहते थे । वे कभी जंगलोंमें घूमते और कभी गुफाओमे योगसाधना करते। जन-सम्पर्कमे शायद ही कभी आते । जब आते तो सुबोध और सुरुचिपूर्ण शैलोमे उपदेश देते । अवधूत-से इस साधुकी बात श्रीमद् यशोविजयजीने भी सुनी थी । वे उनसे मिलना चाहते थे। एक बार अर्बुद क्षेत्रके समीपस्थ गांवमे
१. भानन्दधन पदसंग्रहमें पृ० १६४ पर छप चुकी है। यह संग्रह अध्यात्मशान
प्रसारक मण्डल, बम्बईसे वि० सं० १९६६ में प्रकाशित हुआ था ।