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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
बन सके थे। पाण्डे रूपचन्दजी तिहुना साहुके मन्दिरमै ठहरे ही रहते थे । 'अष्ट सहस्री' जैन दिगम्बर न्यायका दुरुह ग्रन्थ है। यशोविजयजी उमपर एक उत्तम टीका लिखने में समर्थ हो सके । हो सकता है कि उन्होंने इसका अध्ययन आगरेमे किया हो । अगाध विद्वत्ताके साथ लौटे यशोविजयजी । गुजरात तो इसी प्रतीक्षामें था। अहमदाबादके सूबेदार महावतखांने अपने दरबारमे उनका शानदार सम्मान किया। वहां उन्होने अपनी विद्वत्ता और स्मरणशक्तिके परिचायक अठारह अवधान प्रस्तुत किये । सब प्रभावित हुए और युवासाधुके गीत गाये जाने लगे। अहमदाबादमे ही वि० सं० १७१८ मे उन्हे 'उपाध्याय' पदसे विभूषित किया गया।
वि० सं० १७१९ से १७४३ तकका समय उनके साहित्य-मजनका काल था। उन्होंने तीन सौ ग्रन्थोंका निर्माण किया। संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दीपर उनका समानाधिकार था। उन्होंने इन्ही चार भाषाओमे लिखा, जमकर लिखा । इससे भारतीय दर्शन और साहित्यके विद्यार्थी सदैव अनुप्राणित रहेगे। ___ यशोविजयजीका स्वर्गवास वि० सं० १७४३मे 'डभोई नामके नगरमे हुआ। आज भी वहां छह जैन मन्दिर और दो पाठशालाएं है। उस समय इसका नाम दर्भावती था। यह लाट देशको प्रमुख नगरियोमे गिनी जाती थी। प्रसिद्ध न्यायवेत्ता श्री देवसूरिजी और श्री मुनिचन्द्र सूरीश्वरजीका जन्म इसी नगरीमे हुआ था। प्रसिद्ध मन्त्री वस्तुपालने यहाँ एक सीमादुर्ग भी बनवाया था। पं० नाथूरामजी प्रेमी डभोईको यशोविजयजीका जन्म-स्थल मानते रहे। अब यह मान्यता खण्डित हो चुकी है। यशोविजयजी पूर्ण ब्रह्मचर्य, सच्ची साधुता, अगाध पाण्डित्य और गौरवके साथ लगभग ६५ वर्ष जीवित रहे। श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य के उपरान्त भारतीय धरा एक बार फिर प्रकाण्ड विद्वत्ताके तेजसे गौरवान्वित हो उठी थी। साहित्य-सृजन
उनके द्वारा रचित तीन सौ ग्रन्थोका परिचय देना न तो सम्भव है और न प्रसंगानुमोदित । उन्होंने मुख्य रूपसे तर्क और आगमपर लिखा । किन्तु व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्यके क्षेत्रमे भी उनकी गति अप्रतिहत थी। उन्होंने टीकाएँ और भाष्य लिखे। अनेक मौलिक कृतियोका भी निर्माण किया। उनमे 'खण्डनखण्डखाद्य'-जैसे ग्रन्थ उनकी पैनी विद्वत्ताके मानस्तम्भ है । १. आज भी यह, दक्षिण-पूर्व रेल्वे लाइनपर, बड़ौदासे १६ मील दूर स्थित एक
स्टेशन है। इसकी आबादी तीस हजार है। २. पं० नाथूराम प्रेमी, हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, सन् १९१७ ई०,
पृ०६२।
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