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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
यशवन्तपर भी पड़ा। यह यशोविजयके बचपनका नाम था। उनका एक छोटा भाई और था, जिसका नाम पद्मसिंह था। दोनोंकी राम-लक्ष्मण-सी जोड़ी थी। एक बार वे मौके साथ उपाश्रय गये, वहां गुरुवरके मुंहसे भक्तामर सुना । यशवन्तको उसी क्षण याद हो गया। उस समय संस्कृत तो दूर, उन्होने गुजराती भी पढ़ना शुरू नहीं की थी। बालककी इस अद्भुत स्मरण शक्तिका परिचय सबसे पहले मांको प्राप्त हुआ। उन्होने तीन दिनसे अन्न-जल ग्रहण नही किया था। तीन वर्षाके कारण वे भक्तामर नहीं सुन सकी थी, अतः भोजन कैसे करती। बालक यशवन्तको जब यह विदित हुआ, तो उसने तुरन्त ही मांको भक्तामर सुना दिया। उच्चारण शुद्ध था। मां उस बालकमें अलौकिक व्यक्तित्वका आभास पा सकी। वर्षाके रुकनेपर उन्होंने यह सब गुरुवरको सुनाया, और बात हवाकी तरह बहते-बहते अहमदाबाद पहुंची। वहां प्रसिद्ध हीरीश्वरजीके चतुर्थ पट्टधर पं० नयविजयजीने सुनी। उन्होने प्रयास किया। सफल हुए। परिणामस्वरूप वे वि० सं० १६८८ में बालक यशवन्तको, उसके मां-बापकी स्वीकृतिके साथ दीक्षा दे सके । अब वे यशोविजय हो गये।
पं० नयविजयजी प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, व्याकरण, कोश, ज्योतिष आदि विद्याओंमे पारंगत थे। उनके सान्निध्यमें यशोविजयका विद्याध्ययन प्रारम्भ हुआ। वे प्रतिभाशाली तो थे ही, शीघ्र ही व्युत्पन्न होने लगे। एक बार अहमदाबादमें उन्होंने अष्टावधान किये । उनकी अद्भुत स्मरण शक्ति और प्रखर बुद्धिसे प्रभावित होकर सेठ धनजी सूराने दो सहस्र चांदीकी दोनार, उनके उच्च अध्ययनके लिए प्रदान की। वे वाराणसो गये और वहाँके सर्वोत्कृष्ट विद्वान् भट्टाचार्यजीसे षड्दर्शनका पारायण किया। तीन वर्ष उपरान्त वहाँसे चले आये। फिर वि. सं० १७०३-१७०७ तक चार वर्ष आगरेमें किसी न्यायाचार्यके पास कर्कश तर्क ग्रन्थ पढ़े।
यह समझमें नहीं आ पाता कि उन्होंने तीन वर्ष उपरान्त ही बनारस क्यों छोड़ दिया, और आगरेमें वह कौन-सा न्यायाचार्य था, जिससे उन्होंने तर्क-प्रन्य पढ़े। क्या वह विद्वान् बनारसके विद्वानोंसे अधिक ज्ञानी था? अवश्य ही यशो. विजय-जैसे प्रतिभाशाली छात्रने तीन वर्षमें 'षड्दर्शन' का सूक्ष्म अध्ययन कर लिया होगा। किन्तु जैन न्यायके तल-स्पर्शी विवेचनकी क्षुधा उन्हें आगरा ले आयी होगी। उस समय वहां दिगम्बर सम्प्रदायके अनेक पण्डित रहते थे। जैन न्यायके क्षेत्रमें उनको विद्वत्ता असन्दिग्ध थी । उनसे प्रभावित होकर ही पं० बनारसीदास दिगम्बर
१. भकथानक, बम्बई, १६५७ ई०, प्रस्तावना, पृ० १० ।