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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
था । शायद इसी कारण उसका कहीं उल्लेख नहीं है । उन्होंने अपने पारिवारिक जीवनके विषय में किंचिन्मात्र भी इशारा नहीं किया है । वे सच्चे अध्यात्मवादी थे, अतः उन्होंने आत्माका सम्बन्ध ही सच्चा माना और उसीका वर्णन किया । उनको प्रशंसा में लिखी गयी यशोविजयजीकी 'अष्टपदी' उपलब्ध है, किन्तु वह भी उनके आध्यात्मिक गुणों का वर्णन करके चुप हो जाती है । इतना अवश्य विदित है कि उनका दूसरा नाम लाभानन्द था । श्री के० एम० झावेरीने उनको लाभविजय भी कहा है।
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अभीतक उनके मूल निवास स्थानका भी पता नहीं लग सका है । कुछ लोगोने विभिन्न कल्पनाएँ की है। गुजरातीके प्रसिद्ध लेखक श्री मनसुखलाल रजवी भाई मेहताने बहुत दिन पूर्व आनन्दघनपर एक ४०-४२ पृष्ठका निबन्ध लिखा था । उनकी भाषाको आधार बनाकर मेहताजीने भाषा-विवेक शास्त्रकी दृष्टिसे अनुमान किया था कि वे अमुक-अमुक प्रान्तोमे घूमे होगे और अमुक प्रान्तके वासी होगे । उनकी कल्पनाके अनुसार आनन्दवन भी गुजरातके रहनेवाले थे । आचार्य क्षितिमोहन सेनने इसका खण्डन करते हुए उनको राजपूतानेका सिद्ध किया है । उनकी दृष्टिसे गेय पदोंकी भाषाको आधार बनाकर किसी व्यक्तिके मूल देशका निर्धारण नही किया जा सकता । गानेवालोके मुखसान्निध्यसे गेय पद बदल जाते है और उनमें कुछ विलक्षणता आ ही जाती है। श्री आनन्दघनजीने अपना अन्तिम समय मेड़ता नगरमे व्यतीत किया था, जो पश्चिमी राजपूतानेमे अवस्थित है । उनकी वाणियोकी ख्याति भी राजपूताने मे ही अधिक फैली ।
आनन्दघनका समय तो लगभग निश्चित-सा ही है । मेडता नगरमे ही यशोविजयजीसे उनका साक्षात्कार हुआ था । यशोविजयजी इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी प्रशंसा 'अष्टपदी' का निर्माण किया । यशोविजयजीका जन्म संवत् १६८० और स्वर्गवास सं० १७४५ में हुआ था । दभोईनगरमे उनके समाधि-स्थानपर यह मृत्यु सवत् लिखा हुआ है । अतः यह प्रमाणित है कि आनन्दघनजी इन
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१. श्री के० एम० झावेरी, माइलस्टोन्स इन गुजराती लिटरेचर, पृष्ठ १३६ ॥
२. आचार्यं चितिमोहन सेन, जैन-मरमी श्रानन्दघनका काव्य, वीणा, अंक १, नवम्बर १६३८, पृष्ठ ६-७ ॥
३. यह अष्टपदी श्रानन्दघन - अष्टपदीके नामसे सज्झाय, पर अने संग्रह में सबसे पहले प्रकाशित हुई थी। अब तो बुद्धिसागरजी के आनन्दघन पद संग्रहमें भी छपी है।
४. जैन स्तोत्र सन्दोह, प्रथम भाग, मुनि चतुरविजय द्वारा सम्पादित, प्रस्तावना,
पृ० ६०-१०१ ।