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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि दो संवोंके वीचमे अवश्य ही मौजूद रहे होगे। आचार्य क्षितिमोहन सेनने थी यशोविजयको आधार मानकर ही लिखा है, "मेड़ता नगरमे आनन्दघनके साय यशोविजयजीने कुछ समय बिताया था, इसलिए ये दोनो ही समसामयिक थे। आनन्दघन कुछ उमरमे बडे हो सकते है। अतएव सम्भव है कि १६१५ ई० मं० १६७२ के आस-पास उनका जन्म और १६७५ ई० स० १७३२ के लगभग देहावसान हुआ हो । बनारस विश्व विद्यालयके पण्डित विश्वनाथप्रसाद मिश्रने भी इसी आधारपर उनको १७०० वि० सं० के आम-पासका माना है। यह सच है कि उनके विषयमे कोई निश्चित तिथि तो नहीं दी जा सकती, किन्तु वे सत्तरहवी शताब्दीके अन्तिम और अठारहवीके प्रथम पादमे अवश्य मौजूद थे, यह निश्चित है। ___ आनन्दघन एक उदार हृदयके व्यक्ति थे। यद्यपि उनकी शिक्षा-दीक्षा जैनधर्ममे हुई थी और जैनत्त्रके प्रति उनकी प्रगाढ श्रद्धा भी थी, किन्तु उन्होने जैनधर्मके उस दम्भ और पाखण्डवाले पहलूको कभी स्वीकार नहीं किया जो अन्तिम श्रुतकेवलीके उपरान्त शनै:-शनैः पुष्ट होता ही चला आ रहा था। जिन संकुचित सीमाओको तोड़ने के लिए एक बार जैनधर्मने क्रान्ति की थी, उन्हीम वह स्वयं आबद्ध हो गया था। आनन्दघन उनसे निकलकर बाहर जा खड़े हुए। आचार्य क्षितिमोहन सेनके कथनानुसार उनपर मध्य युगके 'मरमिया सहजवाद'का विशेष प्रभाव पड़ा । यह सच है कि उनके भाव कबीर, दादू और रज्जव आदिसे मिलते है, किन्तु यह भी सच है कि वे बनारसीके अध्यात्मवादसे अत्यधिक प्रभावित थे। 'आनन्दधन बहत्तरी' उन्ही आध्यात्मिक भावोसे ओतप्रोत है, जो बनारसीदासकी देन थी। इसमें कोई प्रमाण नहीं है कि वे "साधु वेश त्याग करके मरमी भक्तोके समान दीर्घ अंगावरण पहना करते और सितार, दिलरुबा प्रभृति यती-जनविवजित वाद्य-यन्त्र लेकर घूमा करते थे। यद्यपि उनके विचार वेश-भूषाके समर्थनमे नही थे, किन्तु इससे यह प्रमाणित नही होता कि वे जैन साधुकी वेश-भूषा त्याग१. आचार्य क्षितिमोहन सेन, जैन-मरमी आनन्दधनका काव्य, वीणा, अंक १, नवम्बर
२६३८, पृ०८। २. विश्वनाथप्रसाद मिश्र, घनानन्द कवित्त, भूमिका, पृ० १५ । ३. श्री नाथूराम प्रेमीने कुंअरपाल-चौरडियाके वि० सं० १६८४-१६८५ के लिखे हुए
एक गुटकेके आधारपर आनन्दधनका समय १७वी शताब्दीका मध्य भाग माना है। उन्होंने अनेक तोंके आधारपर यशोविजय और आनन्दधनकी भेंटको भी मिथ्या सिद्ध किया है। अर्द्धकथानक, बम्बई, पृ० ११६-११७ । ४. प्राचार्य घितिमोहन सेनका उपयुक्त लेख, वोण्या, नवम्बर १९३८, पृ० ८।