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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य 'परमात्माका विवाह माना जाता है । इसीको जैन लोग जीव रूपी दुलहाका मोक्षरूपी रमणीके साथ विवाह होना स्वीकार करते है। जब ऐमा होता है तो देव मिलकर आनन्द मनाते है,
"देव सबै मिलि अाइयाजी, हरष हीये अधिकाय । रूप देषत मन मोहीया जी,
लोचन सहस कराय ॥४॥" शिवरमणीने आत्माका मन मोह लिया है। उसके आनन्दका पारावार नहीं है। अजयराज हाथ जोड़कर ऐसे आत्मन्के गुण गाते है,
"शिव रमणी मन मोहीयो जी जेठे रहे जी लुमाय ज्ञान सरोवर में छकि गये जी भावागवण निवारि ॥१५॥ आठ गुणां मंडित हुवा जी सुष को तहाँ नहीं छोर प्रभु गुण गायां तुम तणां जी
अजैराजि करि जोड़ि ॥१६॥" जिन-गीत ___उपर्युक्त गुटके में ही जिन-गीत भी संकलित है। इसमे १० पद्य हैं । कविने एक पद्यमे लिखा है कि हे भगवन् ! आपके 'तारण विरद'को सुनकर ही मै आपकी शरणमें आया हूँ । आपके दर्शनसे मुझे पुण्य मिला। एक दूसरे पद्यमे कविने शिवरमणीके कन्त जिनेन्द्रसे भव-समुद्रसे उस पार उतार देनेकी प्रार्थना की है,
"थाको तारण विरद सुन्यो तुम सरणौं भाईयो जी। थाको दरसण देषित मैं प्रभु पुंनि उपाईयो जी ॥
भुजी शिवरमणी को कंत, परमपद ध्याईयो जी।
तातें अब मुहि पार उतारि, दया चित लाईयो जी ॥७॥" जिनजीकी रसोई
इसकी रचना वि० सं० १७९३ मे हुई थी। यह बधीचन्दजीके मन्दिरमें विराजमान गुटका नं० ५०, वेष्टन नं० १०१४मे निबद्ध है। इसी गुटकेमे यह दो स्थानोंपर अंकित है । एकमें ३६ पद्य है जो अपूर्ण है, और दूसरेमे ५३ पद्य है