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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
जो पूर्ण हैं । इसमे सब प्रकारके व्यजनों और भोजनोके नाम गिनाये गये है। भोजनोपरान्त वन-विहार आदिका भी वर्णन है। भगवान् जिनेन्द्रके बाल-वर्णनमे भी सौन्दर्य है । सब कुछ भगवान् 'जिन'की भक्ति से ही सम्बन्धित है । यह रसोई साधारण नहीं है, आराध्यको सन्तुष्ट करने के लिए बनायी जानेके कारण इसमे कुछ अलौकिक स्वाद आ गया है । आरम्भ, मध्य और अन्त देखिए,
"यह जिन जी की कहूँ रसोई । ताको सुणत बहुत सुख होई॥ तुम रूसो मत मेरे चमना । खेलो बहुविधि घर के अंगना ॥
देव अनेक बहोत खिलावै। माता देखि बहुत सुख पावै ॥३॥" मध्य
"छिमक चणा किया अति मला । इलद मिरच दं घृत में तला ।
मेसी रोटी अधिक वणाई । आरोगो त्रिभुवन पति राई ॥" अन्तिम
"अजैराज इह कियो बखाण । भूल चूक मति हंसौ सुजाण ॥
संवत् सत्रासै त्रेणावे । जंठ मास पूरणा हवै।" कक्का-बत्तीसी
यह कृति उसी मन्दिरके गुटका नं० ५८ और वेष्टन नं. १०२६में निबद्ध है। यह गुटका नं० १२१ पर भी अंकित है। इसको रचना वि० सं० १७३७ वैशाख सुदी १३ दिन सोमवारको हुई थी। इसमे ४० पद्य है । कविने लिखा है,
"ननां निपट वजीक है, निजपद निज घट माहीं। ज्यौं जल बीचि कमौदनी, त्यौं चेवन जड़ पाहीं ॥ २४ ॥ ससा सो अब पाइयो, सो कबहुँ नहीं जाय ।
धनि जनेसर धनि गरू, तिन प्रसाद इहै पाय ।। ३६ ॥" गुटका नं० ५८में अजयराजको लिखी हुई एक दूसरी कक्का बत्तीसी और है। उसमे केवल ३४ पद्य है । उसे अध्यात्म-बत्तोसी कहना ही उपयुक्त है। कविने प्रत्येक जीवकी आत्माको परमात्मा कहा है और उसी प्रेम करनेकी बात लिखी है,
“ठठा ठाकुर जगत में जिय
तुम सम भवर न कोई रै लाल । १. सत्रासेंतीयासीये रिति ग्रीषम वैमाष ।
सोमवार तेरसि भली, अवर उजालौ पाष ॥ गुटका नं० ५८, ४०वाँ पछ ।