________________
३६१
नैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य
सुधपयोग सुभाव करि ज्यौं आनन्द बहुतै होइ रै लाल ॥ १३ ॥ ढढा ढूंढौ ब्रह्म को जिय ता बिनि करनी बादि रै लाल । ता बिनि चहुंगति हड़ोयो जिय षोयो काल अनादि रै लाल ॥ १५ ॥ ददा निज दरसण बिना जिय जप तप सबै निरथ रै लाल । कण बिन तुस ज्यौं फटक तें जिय आवै कछु न हथि रै लाल ॥ १९ ॥ ननां निपट सनेह करि रै निज प्रीतम निज माहि रे लाल । सदा रंगीलो रस मरयौ
ताकौं देषत मन हरषांहि रै लाल ॥ २१॥" विनती ____अजयराजकी 'श्री जिन रिखब महन्त गाऊँ स्तुति उपर्युक्त मन्दिरके गुटका नं० १२१ में, 'जागी जागी हो त्रीभुवन के राय' मन्दिर ठोलियान, जयपुरके गुट क नं० १३१ (ले०, वि० सं० १७७९ ) में और 'निजरी लगी तुम चरण सों' बधीचन्दजीके मन्दिर जयपुरके गुटका नं० ५१, पृ० ६२ पर अंकित है । अन्तिम स्तुति अत्यधिक सरस है। कुछ पंक्तियां देखिए,
"तारण विरद सुणो सबै मुनि जिन लागत पाय ।। निजरी लगि तुम चरण सों सो कबहुं नहिं जाय ॥ तुम मूरति प्रभु देषता निज पद सहज लगाय ॥ चरण कमल दुति है इसी कोटि सुरज छिप जाय ॥ सुष करतां दुष सोषतां तुम त्रिभुवन पति राइ ॥ तुम सेवा बिन सुणी प्रभु दुष्ट करम नहिं जाइ । मवि जिन बहोत समोधिक भवि जल पार उतार ॥ अजैराजि विनती करि आवागमण निवारि ॥"
अजयराजके पद भारतके सभी शास्त्र-भण्डारोके पदसंग्रहोंमें पाये जाते हैं। जयपुरके मन्दिरोका तो शायद ही कोई शास्त्र-भण्डार हो, जिसमें अजयराजके पद न