________________
३५८
हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
अजयराज अट्ठारहवीं शताब्दीके एक सामर्थ्यवान कवि थे। उनको अधिकांश कृतियां भक्ति और अध्यात्मसे सम्बन्धित है। 'जिनगीत' 'पदसंग्रह', 'पूजा' और 'जयमालायें', 'णमोकार सिद्धि' तथा 'नेमिनाथ चरित', भक्तिपूर्ण कृतियाँ हैं। 'चरखा चउपई', 'शिवरमणीका विवाह' और 'जिनजीकी रसोई' अध्यात्मसम्बन्धी रूपक है । 'आदिपुराण भाषा', 'चार मित्रोंको कथा', 'यशोधर चौपई' और 'कक्का बत्तोसी साधारण रचनाएं हैं । इनपर राजस्थानीका प्रभाव है। आदिपुराण भाषा
यह हिन्दी-पद्यमे लिखा गया है। इसमें २२५ पृष्ठ हैं। इसकी रचना वि. सं० १७९७ मे हुई थी । जयपुरके बड़े मन्दिरमे वेष्टन नं० १११ में निबद्ध है। चार मित्रोंकी कथा
इसकी रचना स० १७८१ मे हुई थी। यह भी उपर्युक्त मन्दिरके ही चेष्टन नं० ४१२ मे निबद्ध है। इसमे कुल ६ पृष्ठ है । यशोधर चौपई
इसकी रचना वि० सं० १७६२ कात्तिक बदी २ को हुई थी। इसकी एक प्रति सं० १८०० चैत वदो ११ की लिखी हुई बधीचन्दजीके दि० जैन मन्दिरमे स्थित है। यह प्रतिलिपि बस्सीवाले चूहडमल पाटनीने आमेरमे करवायी थी। चरखा चउपई
एक रूपक-काव्य है। यह जयपुरके बधोनन्दजीके जैन मन्दिरके गुटका नं० १३४ में निबद्ध है । इसमे ११ पद्य है, प्रथम तोनमे जिनेन्द्रको वन्दना है, सात पद्योमें चरखेका रूपक है और अन्तमें उसकी उपयोगिताका वर्णन है। कृति भावपूर्ण और रसयुक्त है । प्रारम्भके पद्य देखिए,
"श्री जिनवर वंदू गुणगाय, चतुर नारि चर्षे लाय । राग दोष विगता परिहरे, चतुर नारि चरपे चित धरै ॥ प्रथम मूल चरषा को जाणि, देव धर्म गुरु निस्चै आणि । दोष अठारा रहत सू देव, गुरु निरगंय तिण करि सेव ।। धर्म जिनेसुर भाषित सार, जपत तत हिरदै अवधार ।
ज्यों समकित उपजै सुषकार, ता विन भ्रम्यो भव तू संसार ।" शिवरमणीका विवाह __यह उपर्युक्त मन्दिरके गुटका नं० १५८, वेष्टन नं० १२७५ मे निबद्ध है। इसमें कुल १७ पद्य है। आत्मामें परमात्माके उदय होने को ही आत्माके साथ