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जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ
द्यानतरायका कथन है कि 'आतमराम' सो लगनेसे अर्थात् ध्यान करनेसे 'दुविधा भाव' दूर हो जाता है, भक्त और स्वामीमे भेद नहीं रहता, दोनो एक हो जाते है। भैया भगवतीदासने 'सूआबत्तीसी' मे “ध्यावत भाप माहिं जगदीश, दुहुं पद एक बिराजत ईश ।" लिखकर ध्यानसे तादात्म्यकी बातको पुष्ट ही किया है । प० दौलतरामने भी "तब वास्यौं विछरूँ नहीं, ध्याऊँ है निरग्रन्थि " लिखा है ।
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स्मरणसे केवल भगवान्का तादात्म्य ही नहीं, अपितु भौतिक विभूति भी उपलब्ध होती है । मुनि वादिराजका शरीर कोढ़को दुर्गन्धिसे युक्त था, जिनेन्द्रकी स्मृति से स्वर्ण - जैसा चमक उठा । हिन्दीके कवि द्यानतरायका कथन है कि प्रभुके स्मरणसे यह जीव तर तो जाता ही है, साँप और मेढक जैसे जीवोंको सुरपद भी प्राप्त होता है । देवताओंका वैभव प्रसिद्ध है। भैया भगवतीदासने 'परमात्मछत्तीसी' मे लिखा है, "राग द्वेष को त्याग के घर परमातम ध्यान | ज्यों पावे सुख सम्पदा, मैया इम कल्यान ॥ सांसारिक विभूतियोंकी प्राप्ति होती अवश्य है, किन्तु हिन्दीके जैन कवियोंने आध्यात्मिक सुखके लिए ही बल दिया है । प्रभुके स्मरणपर तो लगभग सभी कवियोंने जोर दिया है, किन्तु ध्यानवाची स्मरण जैन कवियोंकी अपनी विशेषता है ।
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दर्शनकी महिमा
आराध्यको सतत देखते रहनेकी तीव्र अभिलाषा कभी बुझती नहीं । अँखियाँ हरि-दरसनकी भूखी बनी ही रहती है। हो भी क्या, प्रभु लावण्यसिन्धु हैं, उनके लावण्यजलसे प्यासेकी प्यास तृप्त नहीं होती । गोपीके नेत्र तो कृष्णके मुखको देखते ही लुभा जाते थे, अर्थात् इस भांति आनन्दमग्न हो जाते थे कि उन्हे लोक
१. द्यानतपदसंग्रह, ३हवा पद ।
२. ब्रह्मविलास, सूमा बत्तीसी, ३० वॉ पद, पृ० २७० ।
३. अध्यात्म बारहखडी, प्रारम्भ, ४६वॉ पद्य ।
४. ध्यानद्वारं मम रुचिकरं स्वान्तगेह प्रविष्ट
स्तत्कि चित्रं जिनवपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि || एकीभावस्तोत्र, ४था श्लोक ।
५. थानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ' ७७वाँ पद । ६. ब्रह्मविलास, परमात्मछत्तीसी, ३५वा पद्य, पृ० २३० ।
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