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हिन्दी जैन मनि-काव्य और कवि
लज्जा और कुलकानिका भी ध्यान नहीं रहता था। इधर अभी तीर्थकरका जन्म ही हुआ है कि इन्द्र टकटकी लगाकर निरखने लगा । तृप्त नही हुआ तो सहस्रनेत्र धारण कर लिये । तृप्ति फिर भी न मिल सकी । भट्टारक ज्ञानभूषणने 'आदीश्वरफागु' मे बालक आदीश्वरके सौन्दर्यका वर्णन करते हुए लिखा है, "देखनेवाला ज्यों-ज्यों देखता जाना है, उसके हृदयमे वह बालक अधिकाधिक भाता जाता है।" अर्थात् वह तृप्ति का अनुभव नही करता। और ये नेत्र जब अपने प्रियको नहीं देख पाते तो उसके प्रतीक्षा-पथपर बिछे रहते है। दिन और रात देखते रहनेसे आँखें लाल हो जाती है, किन्तु दुखती नही, क्योकि प्रियमिलनकी ललक उन्हे निरन्तर देखते रहनेकी शक्ति देती है। महात्मा आनन्दधनने लिखा है कि मार्गको निहारते-निहारते आँखें स्थिर हो गयी है, जैसे कि योगी समाधिमें और मुनि ध्यानगे होता है। वियोगकी बात किससे कही जाये । मनको तो भगवान्का मुख देखनेपर ही शान्ति हो सकती है,
"पंथ निहारत लोयणे, द्रग लागी अडोला । जोगी सुरत समाधि मैं, मुनि ध्यान झकोला ॥ कौन सुनै किनकुं कहुँ, किम मांडं मैं खोला ।
तेरे मुख दीठे हले, मेरे मनका चोला ॥" हिन्दीके जैन कवियोने हृदयमे बैठे 'आतमराम' के दर्शनकी बात अनेक बार कही है। उन्हें उसके देखनेसे एक चरम आनन्दकी अनुभूति मिलती है । उसके दर्शनसे यह जीव स्वयं भी 'परमातम' बन जाता है। आनन्दतिलकने 'महानन्दिदेउ' में लिखा है, "अप्प विंदु ण जाणहिं आणंदा रे । घट महि देव अणंतु " कवि विद्यासागरने 'विषापहारछप्पय' मे लिखा है कि 'बहु देहों के मध्य 'एक रूप' 'धुतिवंत' जिनदेव विराजमान हैं, जो मुख धुमाकर देखता है, उसे परमसुख मिलता है । भट्टारक शुभचन्द्रने भी 'तत्त्वसारदूहा' मे, "देह भीतर तिम अप्प
१. आहेकनियकुण्डल झलकइ खलकइ नेउर पाइ। जिम जिम निरखइ हरखइ यिडइ तिम तिम भाइ ।
आदीश्वरफागु, आमेरशास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रति, ६६वॉ पद्य । २. आनन्दघनपद संग्रह, अध्मात्मज्ञानप्रसारकमण्डल, बम्बई १६वॉ पद । ३. आनन्दतिलक, मानन्दिदेउ, आमेरशास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रति, तीसरा पद्य । ४. विद्यासागर, विषापहारछप्पय, दिव्जैनशास्त्रभण्डार दूंगी, गुटका नं० १४३,
७वाँ पद्य।