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जैन मक्ति : प्रवृत्तियाँ
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सरूप, शुद्ध दूध माहिं रहि जिम त्रप ।" लिखा है। उन्होंने देहके भीतर रहनेवाले 'अमुत्त अप्पा' के दर्शन से परमानन्द प्राप्त होनेकी बात तो एकाधिक बार लिखी है । कवि ब्रह्मदीपने 'अध्यात्मबावनी' मे स्पष्ट ही कहा है, "जै नीकै घरि घटि महि देखै, तौ दरसनु होइ तबहि सबु पेखै ।” पाण्डे हेमराजने 'उपदेश दोहाशतक' मे लिखा है कि घटमे बसे निरंजनदेवके दरसनसे ही 'सिवषेत' मिलता है, अन्यथा नही । कवि बनारसीदासका कथन है कि घटमे रहनेवाले इस परमात्मा के रूपको देखकर महा रूपवन्त थकित हो जाते है, उसके शरीर की सुगन्धिसे अन्य सुगन्धियाँ छिप जाती है ।
'आतमराम' के दर्शनसे भक्तको केवल हृदयके भीतर ही आनन्दको अनुभूति नहीं होती, अपितु उसे समूची पृथ्वी भी आनन्दमान दिखाई देती है । सिंहलद्वीप से आये हुए रतनसेनको जब नागमतीने देखा तो उसे पूरा विश्व हरा-भरा दिखाई दिया । बनारसीदासने भी प्रिय 'आतम' के दर्शन से प्रकृतिमात्रको प्रफुल्लित दिखाया है । द्यानतरायने तो सब जगह वसन्त फैला हुआ देखा है ।
भगवान् के 'दर्शन' मे असीम बल है। दर्शन मात्र से ही सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती है । अत: जैन कवि जिनेन्द्रको चिन्तामणि और कल्पवृक्ष - जैसे सम्बोधनोसे सदैव सम्बोधित करते रहे है । किन्तु 'दर्शन' से भौतिक सुख पानेका अधिक कथन जैन संस्कृत स्तोत्रोमे उपलब्ध होता है । हिन्दीके जैन कवियोंने आध्यात्मिक आनन्दपर ही अधिक बल दिया है । यशोविजयजीने अपने 'पार्श्वनाथस्तोत्र' मे लिखा है,
"कल्पद्रुमोse फलितो लेभे चिन्तामणिर्मया । प्राप्त कामघटः सद्यो यज्जातं तव दर्शनम् ॥ क्षीयते सकलं पापं दर्शनेन जिनेश ! ते । तृण्या प्रलीयते किं न ज्वलितेन हविर्भुजा ॥"
१. तत्त्व रहा, मन्दिरठोलियान, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति, २१वी चौपई ।
२. ब्रह्मदीप, अध्यात्मबावनी, पण्ड्या लूणकरजीका मन्दिर, जयपुर, गुटका नं० ११४,
४३वाँ पद्य ।
३. कोटि जनम लौ तप तर्प, मन बच काय समेत ।
सुद्धतम अनुभौ बिना क्यो पावै सिवषेत ॥
उपदेशदोहाशतक, बधीचन्दजीका मन्दिर, जयपुर, वेष्टन नं० ६३६, १८वाँ दोहा ।
४. बनारसीविलास, अध्यात्मपदपंक्ति, ७वाँ पद |