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________________ जैन भक्ति: प्रवृत्तियाँ सिद्ध भी है। भैया भगवतीदासने 'सुपंथकुपंथपचीसिका' में जिनेन्द्रके नामकी अचिन्त्य महिमाका वर्णन किया है । उदाहरणके लिए, "तेरो नाम कल्पवृक्ष इच्छा को न राखै उर, तेरो नाम कामधेनु कामना हरत है। तेरो नाम चिन्तामन चिन्ता को न राखै पास, तेरो नाम पारस सो दारिद डरत है। तेरो नाम अमृत पिये तें जरा रोग जाय, तेरो नाम सुखमूल दुख को दरत है। तेरो नाम वीतराग धरै उर वीतराग, भव्य तोहि पाय मवसागर तरत है । __ कीर्तनका दूसरा अर्थ है गुणोंका कीर्तन । जिनेन्द्रमे गुण तो है असीम और मानव है ससीम, फिर उन्हे केसे कहे । अतः वह असोमको कहनेके लिए अतिशयोक्तिका सहारा लेता है। यहां 'अतिशयोक्ति' शब्द असीमके पक्षमे नहीं, अपितु कहनेवाले 'ससोम' के पक्षमे घटता है। ससीम कह नही पाता, किन्तु जो कुछ भी कहता है, वह भी उसके लिए बढ़ा-चढ़ा कथन है। असीमके सीमारहित गुणोंको तो वह जान भी नही पाता, अतः उन्हे बढ़ा-चढ़ाकर कहनेका तो कोई अर्थ ही नहीं है । 'स्वयम्भू स्तोत्र' में इसे अल्पमतिका 'प्रलाप-लेश' कहा है, वह अल्पमति, जो जिनेन्द्र के अशेषमाहात्म्यको जानता ही नही । धनञ्जयने 'विषापहार स्तोत्र' मे स्पष्ट ही लिखा, "वक्तुं कियान् कीदृशमित्यशक्यः, स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु ।" हिन्दीके पद-साहित्यमे 'असीम' के गुणोंको कहनेको अशक्यता सरसताके साथ अभिव्यक्त की गयी है । कवि द्यानतरायने एक स्थानपर लिखा है, "प्रभु मैं किहि विधि थुति करौं तेरो। गणधर कहत पार नहिं पावै, कहा बुद्धि है मेरी ।। शक्र जनम भरि सहस जीम धरि तुम जस होत न पूरा । एक जीम कैसे गुण गावै उलू कहै किमि सूरा ॥ चमर छत्र सिंहासन बरनौं, ये गुण तुमते न्यारे । तुम गुण कहन वचन बल नाहीं नैन गिनै किमि तारे ॥ पं० दौलतरामको 'अध्यात्मबारहखड़ी' में भी लिखा है कि जिनेन्द्रकी गूढ़ महिमा गणपति भी नहीं कह पाते, फिर भला में मतिहीन अज्ञानी उस भेदको कैसे पा सकता हूँ। १. द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ४५वॉ पद । २. अध्यात्मबारहखडी, बडामन्दिर, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति, 'ग' अक्षर, ७५वाँ पद्य।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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