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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
४५ स्तवन है । प्रस्तुत स्तवन भी प्राचीन हिन्दीमें लिखा गया दोनों तीर्थंकरोंकी भक्तिका काव्य है।
भक्त कवि एक स्थानपर कहता है कि भगवान् अजित जिनेन्द्र संसारके गुरु है, और भगवान् शान्तिनाथ नेत्रोंको आनन्द देनेवाले है। दोनों ही विश्वको श्रीसम्पन्न कर कल्याण करते है । जीव मात्रको सुखी बनाना उनका उद्देश्य है । वे सुखरूपी समुद्रके लिए पूनोके चांदकी भांति है । अर्थात् उनकी कृपाके उदित होते ही, जीवोके सुख-समुद्रमे आनन्दकी लहरें उठने लगती है। उन जिनवरोंको प्रणाम करने, उनके गुणोंको गाने और सेवन करनेसे पुण्यके भण्डार भर जाते हैं । वह पुण्य मनुष्य भवको सफल बनानेमें पूर्णरूपसे समर्थ है,
"मंगल कमला कंदुए, सुख सागर पूनिम चंदुए । जग गुरु अजिय जिणंदुए, संतीसुर नयणाणंदुए ॥ वे जिणवर पणमेविए, वे गुण गाइ सुसंसेविए ।
पुन्य भंडार भरेसुए, मानव भव सफल करेसुए ॥" भक्त युग-युगसे भगवान्की शरणमे जाते रहे है। वहां उन्हें शान्ति मिलो है और सुख प्राप्त हुआ है। यहां भी भक्त अजित और शान्तिको शरणमे गया है। उसका कथन है कि वे भगवान् उत्सव और मंगलके जन्मदाता है। उनकी कृपासे संघके समूचे पाप दूर हो जाते है । भगवान्के नेत्र कमलोकी भांति विशाल है, उनमें से दयारूपी सुगन्धि फूटती है। उस सुगन्धिको पाकर यह जीव भवसमुद्रसे पार हो जाता है। अर्थात् अजित और शान्तिनाथकी शरणमे जानेसे यह भोला भक्त, असार संसारको तैरकर मोक्षमे पहुँच जाता है ।
"वे उच्छव मंगलकरण, वे सयससंघ दुरियह हरण । वे वरकमल वयण नयण, वे सिरि जिणराय भवण रयण ॥ इम भगसिहिं भोलिम तणीए, सिरि भजिय संति जिण थुइ मणिए ।
सरणइ विडं जिण पाएं, सिरि मिणनंदण उवझाए ॥" सीमन्धरजिनस्तवनम्'
इस स्तवनमें ३१ पद्य है। इसकी भाषामें माधुर्य, भावोंमें सौम्यता और सादृश्य वर्णनमें प्रौढ़ता है । दृश्यांकन सफल हुए है। पद्मासनपर विराजे सीमन्धर
१. यह स्तवन, प्रथम भाग, मुनि चतुरविजय संपादित, जैन स्तोत्र संदोह, अहमदाबाद,
१९३२ ई०, में पृष्ठ ३४०-३४५ पर प्रकाशित हो चुका है।