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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि स्वामी और उदयगिरिपर सुशोभित सहस्रकिरणका सादृश्य ऊहाजन्य नहीं है। उपमान और उपमेयको स्वाभाविक ढंगसे ही संघटित किया गया है।
"त तसु अंतरि रयणिहिं घडिउ सिंहासणु झलकंतु, त पायपीटु तसु तलि विमलो मणि निम्मिउ दिप्पंतु । त तह सीमंधर जिणपवरो पउमासणउवविठ्ठ,
त सहस किरण जिम उदयगिरि पुण्ण ति जेहिं सुदिछ ॥९॥" चित्रांकनमे तो कविको अभूतपूर्व सफलता मिली है। दृश्योका चित्रांकन कविकी सबसे बड़ी कला है। यह वही कवि कर सकता है, जिसकी अनुभूति सूक्ष्म और कल्पना पैनी हो। एक चित्र यह है, 'सीमन्धर स्वामीके समवसरणमे आती हुई सुर-रमणियाँ परिवारसहित सुविमानो विराजमान है। उनके रूपमे अद्भुत लावण्य है। उड़ते विमानोमें बैठनेके कारण देवांगनाओंके शरीरमे स्पन्दन हो रहा है, और इस भाँति उनकी कमरमे पड़ी किंकिणियां भी हिल रहीं है। उनसे मधुर ध्वनि निकलती है। देवियोंका हृदय भगवान्की भक्तिसे उल्ल. सित है। वे बड़े उत्साहसे दसों दिशाओमे फैलकर भगवान्के गीत गाती हुई समवसरणमे मायी है।'
"त रणउणंतकिकिणिरयणि ऊगगमंत सुविमाण, त सपरिवार सुररमणिगणि लवणिमरूव निहाण । त बहुल भत्ति उल्लसिय हिय दस दिसि घणु पसरंत, त समवसरणि आवई सयल सामिय गुण गायंत ॥१॥"
इस काव्यमें उपमागभित रूपक भी बहुत हैं। एक रूपकमें लिखा है कि भगवान्की दिव्यध्वनि गंगाकी उन निर्मल तरंगोंकी भांति है, जो सम्पूर्ण अपविवताओंको घोती हुई चली जाती है। संसारमे जलते जीवोंकी दाह केवल अमृतसे ही शान्त हो सकती है, और भगवान्की दिव्यध्वनि एक अमृतके प्रवाहकी भौति ही है। सीमन्धर स्वामीकी दिव्यध्वनि वर्षाके गरजते उन मेघोंकी भांति भी है, जिनकी आवाज सुनकर, 'भव्य' रूपी मयूरोके चित्त फरफर नाच उठते है,
"निम्मल ए गंगतरंगचंगु पणासियसयलतमु , भवदव ए संभवदाह फेडणअमियपवाह समु।