________________
हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
"अह सयल लक्खणं जाणि सुवियक्खणं, सूरि ठूण 'समरं कुमारं'। मविय तुह नंदणो नयण पाणंदणो, परिणओ अम्ह दिक्खा कुमारिं ॥११॥"
इस प्रकार सूरिजीने उस कुमारको जैनदीक्षा पानेके योग्य घोषित किया और भीमपल्ली चले गये ।
कुमार दीक्षा ग्रहण करनेके लिए बारम्बार आग्रह करने लगा, तो माने समझाया कि तुम्हारे कमलके समान हाथ, अनुपम रूप और उत्तम वंश है । श्रेष्ठ नारियोंके साथ विवाह कर सुखी होओ। नये-नये प्रकारके भोगोंका उपभोग करो और अपने उत्तम कार्योस हमारे कुलको कोत्तिके शिखरपर आरूढ़ कर दो।
"तेण कमल दल कोमल हाथ, बाथ म बाउलि देसितउं । रूपि अनोपम उत्तम वंश, परणाविसु वर नारि हडं ॥ नव-नव भंगिहिं पंच पयार, भोगिवि भोग वल्लह कुमार । ऋमि-क्रमि श्रम्ह कुलि कलसु चडावि, होजि संघाहिवइ कित्तिसार ॥१७-१८॥"
पुत्र नहीं माना और अपने आग्रहपर अटल रहा। तब कुमारके निश्चयको जननीने जाना, और व्याकुल आँखोसे आंसू ढुलकाती हुई बोली कि हे वत्स ! जो कुछ तेरे मनको अच्छा लगे वह कर । इस प्रकार गद्गद कण्ठसे स्वीकृतिसूचक वचनोंका उच्चारण कर वह चुप हो गयी। "तउ कुमर निच्छयं जणणि जाणेवि,
दणहण नयणि मीरं झरती । करिन तं वच्छ जं तुझ मण भावए,
__ अच्छए गद गद सरि मणंती ॥२०॥" मांकी इस बेवशीमे स्वाभाविकता है और प्रसाद भी।
यह सिद्ध है कि तीव्र गुरु-भक्तिसे अनुप्राणित होकर ही कवि, ऐसे रस-सिद्ध स्थलोंको अंकित कर सका है। अजित-शान्तिस्तवनम्
भगवान् अजितनाथ, भरतक्षेत्रकी चतुर्विंशतिकाके दूसरे और शान्तिनाथ सोलहवें तीर्थकर है। संस्कृत और प्राकृत साहित्यमें दोनोंके ही मिले-जुले अनेक