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तुलनात्मक विवेचन
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और मयूर तथा चकोर भी प्रसन्न होकर नाच उठे हैं । गुरुके ध्यानमें स्नान करके ही शीतल लहर बहने लगी है । गुरुकी कीर्ति और सुयशसे ही सम्पूर्ण संसार महक रहा है । विश्वके सातों क्षेत्रोंमें धर्म उत्पन्न हो गया है । श्री गुरुके प्रसादसे सदा सुख उत्पन्न होता है ।"
"आन्यो मास असाढ़ झबूके दामिनी रे |
जीवद्द जोवइ प्रीयडा वाट सकोमल कामिनी रे ॥ चातक मधुरइ सादिकि प्रीऊ प्रीऊ उचरइ रे ।
बरसइ घण बरसात सजक सरवर भरइ रे ॥ इण अवसर श्रीपूज्य महामोटा जती रे ।
श्रावकना सुख हेत आया त्रम्बावती रे ॥ जोव श्रम गुरु रीति प्रतीति वधइ वली रे !
दिक्षा रमणी साथ रमइ मननी रली रे ॥ प्रवचन वचन विस्तार अस्थ तणवर घणा रे 1
कोकिल कामिनी गीत गायइ श्री गुरु तणा रे ॥ गाजइ गगन गंभीर श्री पूज्यनी देशना रे ।
भवियण मोर चकोर थायइ शुभ वासना रे ॥ सदा गुरु ध्यान स्नान लहरि शीतल बहइ रे ।
कीर्त्ति सुजस विसाल सकल जग महमहइ रे ॥ साते खेत्र सुठाम सुधर्मह नीपजइ रे ।
श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख संपजइ रे ॥" "
श्री साधुकीर्तिने गुरु जिनचन्द्रसूरिकी भक्ति में एक राग मल्हारका निर्माणकिया था । उसमें एक शिष्य आनेवाले गुरुको देखनेके लिए ठीक वैसे ही बेचैन है जैसे कोई प्रोषित्पतिका आनेवाले पतिको देखनेके लिए बेचैन हो उठती है। उन्होंने कहा, "हे सखि ! मेरे लिए तो वह ही अत्यधिक सुन्दर है, जो यह बता दे कि हमारे गुरु किस मार्ग से होकर पधारेंगे। श्रीगुरु सभीको सुहावने लगते हैं और वे जिस पुरमें आ जाते हैं, वह तो जैसे 'शोभा' ही हो जाता है । उनको देखकर हर कोई जयजयकार किये बिना नहीं रहता । जो गुरुको आवाजको भी जानता है, वह मेरा साजन है । गुरुको देखकर ऐसी प्रसन्नता होती है जैसे चन्द्रको देखकर चकोरको और सूर्यको देखकर कोकको । गुरुके दर्शनोंसे हृदय सन्तुष्ट, पुण्य पुष्ट और मन
१. देखिए कुशललाभ, श्रीपूज्यवाहणगीतम्, पद्य ६१-६४, ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह, अगर चन्द नाहटा सम्पादित, कलकत्ता, पृ० ११६-११७ ।