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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
प्रसन्न होता है । अन्तमें व्याकुल होकर वह पुकार उठता है कि हे निर्द्वन्द्वी श्री जिनचन्द्र ! प्रमोदी होकर शीघ्र ही आ जाओ, तुम्हे देखकर मेरा हृदय जैसे अनिर्वचनीय रसका ही आनन्द ले उठेगा ।"
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इस भांति गुरुके विरह में शिष्यको बेचैनी और मिलनमें अपार प्रसन्नता, जैसी जैन कवि अंकित कर सके, निर्गुनिए सन्त नही । उन्होंने इस ओर ध्यान भी नही दिया । कबीर आदि सन्तोंमे भावपरकताका अभाव है और जैन कवियोंकी भावुकता सतगुरु के लिए भी, भगवान्की भांति ही मुखर हो उठी है । शिष्यका विरह पवित्र प्रेमका द्योतक है। जैनोंका सतगुरु प्रेमास्पद भी है ।
सन्त साहित्यमे 'सबद को अंग का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । शब्द ब्रह्मको कहते है । शब्द-ब्रह्मकी धारणा बहुत प्राचीन है । ऋग्वेद (१।१६४|१० ) पर इसकी चर्चा हुई है । समाधिपाद ( २५वीं सूत्र ) में ईश्वरका वाचक ओंकार शब्द ही है । 'माण्डूक्योपनिषद्' और 'कठोपनिषद्' ( १।२।१६ ) मे भी 'ओंकार' की महिमाका निरूपण है। जैन आचार्य सहस्रों वर्ष पहलेसे ही ओकारके ध्यानकी बात कहते चले आये है । आचार्य कुन्दकुन्दके 'समयसार' के प्रारम्भ में ही, "ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमोनमः ॥" दिया हुआ है । जैन हिन्दी कवियोने 'ॐकार' को एक परम गूढ़ पद कहा है । मूढ़ व्यक्ति उसके भेदको नही जानते । सतगुरुकी कृपा ही उसका रहस्य समझाने में समर्थ है | पं० दौलतरामने ॐकारकी महिमाका वर्णन करते हुए लिखा है,
ॐकार परम रस रूप, ॐकार सकल जग भूप । ॐकार अखिल मत सार, ॐकार निखिल तत धार ॥ ॐकार सबै जग मूल, ॐकार भवोदधि कूल । ॐकार मयी जगदीस, ॐकार सु अक्षर सीस ॥
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कबीरदासकी दृष्टिमे सतगुरु वह ही है, जो शब्दबाणको सफलतापूर्वक चला सके, और जिसके लगते ही शिष्यका मोह जाल विदीर्ण हो जाये । जैन सतगुरु बाण नहीं चलाता, अपितु उसके कोमल वचनोंसे ही शिष्य वीणा-नादको सुनकर
१. साधुकीति, श्री जिनचन्दसूरि गीतानि, नं० ३, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, अगरचन्द नाहटा सम्पादित, कलकत्ता, पृ० ६१ ।
२. पं० दौलतराम, अध्यात्म बारहखड़ी, हस्तलिखित प्रति, बडा मन्दिर, जयपुर, प्रारम्भ, छन्द चौपाई, ४–५ ।
३. सतगुरु लई कमांण करि, बाँहण लागा तीर ।
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एक जु बाह्या प्रीति सूँ, भीतरि रह्या सरीर ॥
कबीर ग्रन्थावली, गुरुदेव कौ अंग, ६ठी साखी, पृ० १ ।