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________________ तुलनात्मक विवेचन ४६९ मृगकी भाँति रोझ जाता है । वे कोमल वचन शिष्यके हृदयसे मोहरूपी विष दूर कर देते हैं, और वहीं अनुभवरूपी अमृतका स्रोत बह उठता है । अनादिका तमस नष्ट हो जाता है और सुप्रकाशकी लहर चल पड़ती है ।' अर्थात् जैन शिष्यका भी मोह जाल विदीर्ण होता है, किन्तु ऐसा करनेके लिए जैन गुरु हिंसाका नही, अहिंसाका प्रयोग करता है । बाह्य आडम्बरोंका विरोध मध्य युग जैनोंमे भी बाह्य कर्म-कलाप इतने अधिक बढ़ गये थे कि उन्हींको जैनधर्मकी संज्ञा दे दी गयी। महावीरकी दिव्यवाणी दब गयी । सम्यक्त्व निरस्त हो गया । अचेतनको चेतन समझने में जैन भी पीछे नहीं रहे। दसवींग्यारहवी शताब्दी के जैन सन्तोंने अपभ्रंश भाषाके माध्यमसे इन बाह्य आडम्बरोंका निर्भीकता से विरोध किया। उनमें मुनि रामसिंहका नाम सर्वोपरि है । उनके विषय में श्री वियोगी हरिका कथन है, "धर्मके नामपर जो अनेक बाह्य आडम्बर और पाखण्ड प्रचलित हुए, उन सबका इस जैन सन्तने प्रबल खण्डन किया ।” मुनि रामसिंहने एक स्थानपर लिखा है, "हे मुण्डितोंमे श्रेष्ठ ! सिर तो तूने अपना मुँड़ा लिया, पर चित्तको नही मुँड़ाया । संसारका खण्डन चित्तको मुँड़ानेवाला ही कर सकता है ।' तीर्थक्षेत्रोंके विषयमे उनका कथन है, "हे मूर्ख, तूने एक तीर्थसे दूसरे तीर्थमें भ्रमण किया और चमड़ेको जलसे धोता रहा, पर इस पापसे मलिन मनको कैसे घोयेगा ।"" योगीन्दु, देवसेन आदिने भी ऐसी ही ,3 १. कोमल वचन गुरु बोल मुख सेती सुध, सुन सम रीझे रीझे म्रिग सुनि नादि का । अनुभव अम्रत सो मोह विष दूर करें, करें सुप्रकास तम मेटि के अनादि का || अध्यात्म सवैया, हस्तलिखित प्रति, आमेर शास्त्रमण्डार, जयपुर, २हवाँ पद्य । २. सन्त सुधासार, श्री वियोगी हरि सम्पादित, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, १९५३ ई०, पृ० १८ । ३. मुंडिय मुंडिय मुंडिया । सिरु मुंडिउ चित्तु ण मुंडिया । चित्त मुंडण जि कियउ । संसारहं खंडण ति कियउ ॥ पाहुडदोहा, १३५वाँ दोहा । ४. तित्त्थई तित्थ भमेहि वद धोयउ चम्मु जलेण । एहु मणु किम घोएसि तुहुं मइलउ पावमलेण ॥ वही, दोहा, १६३वॉ । ६०
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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