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________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि बातें लिखी है, किन्तु उनका स्वर वैसा पैना नही है। जैन हिन्दीके भक्ति-काव्यमे भी ऐसी हो प्रवृत्तियोंके दर्शन होते है। उनपर जैन अपभ्रंशका प्रभाव स्पष्ट ही है। चौदहवीं शताब्दीकी प्रसिद्ध कृति 'आणंदा' में लिखा है, "संसारके मूर्ख जीव अनेकानेक तीर्थ-क्षेत्रोंमें घूम-घूमकर मरते है, किन्तु उन्हे यह विदित नहीं कि आनन्द शरीरको स्वच्छ करनेसे नहीं, अपितु आत्माको शुद्ध करनेसे मिलता है।" वह पद्य इस प्रकार है, अठ सठि तीरथ परिममइ मूढा मरहिं ममंतु । अप्पा विन्दु न जाणही, आनंदा घट महि देउ भणंतु ॥' निर्गुण काव्यधाराके कवि सुन्दरदासने भी ऐसी ही बात कही है। अठसठि शब्द दोनोंमें ही समान रूपसे प्रयुक्त हुआ है, सुन्दर मैली देह यह निर्मल करी न जाइ। बहुत भांति करि धोइ तू अठ सठि तीरथ न्हाइ ॥ चतुर्वर्णी व्यवस्थाके विरुद्ध जैन कवियोंका स्वर निर्गुनिए सन्तोंकी भांति ही तीखा है, किन्तु उनमे कडवाहट नही है। उन्होंने ब्राह्मणोंका विरोध करने के लिए जातिप्रथाका खण्डन नहीं किया, अपितु उनका विरोध आत्मसिद्धान्तपर आधारित था । भट्टारक शुभचन्द्र ( १६वीं शती ) ने 'तत्त्वसारदूहा' मे लिखा है, उच्च नीच नवि अप्पा हवि कर्म कलंक तणो की तु सोइ । बंभण क्षत्रिय वैश्य न शुद्र अप्पा राजा नवि होइ क्षुद्र ॥ अप्पा धनि नवि नवि निर्धन, नवि दुर्बल नवि अप्पा धन्न । मूर्ख हर्ष द्वेष नवि ते जीव, नवि सुखी नवि दुखी अतीव ॥ इसकी तुलनामें कबीरदासका यह कथन देखिए, जिसमें उन्होंने ब्राह्मणको सम्बोधन करते हुए कहा है, "जब हम दोनों एक ही ढंगसे उत्पन्न हुए हैं, तो १. आणन्दाकी हस्तलिखित प्रति, मस्जिदखजूर, जैन पंचायती मन्दिर, दिल्ली, तीसरा पद्य । २. सुन्दरदर्शन, किताबमहल, इलाहाबाद, १९५३ ई०, पृ० २४० । ३. मट्टारक शुभचन्द्र, तत्त्वसारदूहा, मन्दिर ठोलियान, जयपुरकी हस्तलिखित प्रति, पच ७०-७१।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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