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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
"काहा करूं कैसे तिरूं भवसागर भारी ॥ टेक ॥
माया मोह मगन भयो महा विकल विकारी ॥ काहा० ||१|| मन हस्ती मद आठ, सुमन-सा मंजारी । चित चीता सिंघ सांप ज्युं अतिबल अहंकारी || काहा० ||२|| बाला तन पेलत गयो, सुधि बुधि न चितारी ।
चेतन चिति नहिं चेतना, सुचि नहीं सु विचारी ॥ ३ ॥ अब क्या गति या जीव की, तीन्हों पण हारी । अचलकीरति श्राधार है, प्रभु सरन तुम्हारी ||६|| " अचलकीतिका एक 'फागु' दि० जैन मन्दिर बड़ोतके एक पदसंग्रहमे, जो वेष्टन नं० ४०५ में निबद्ध है, पृ० ३२ पर अंकित है ।
"डफ बाजन लागे हो, हो होरी सब मिलि फाग सुहावनी
हो पेलत हैं नर नारि ॥टेक॥ छाँडि गयो महा सांवरो प्यारो, जाय चढ्यो गिर नारि ॥ डफ० ॥१॥ नि बाहिर भीतर षडी हो, बिस सम है गृह बास ।
पिय दुख कदे न वीसरूं हो अब मन भयो है उदास ॥ डफ० ||२|| हां जुगल जुगल मिलि पेल ही हो, अबीर गुलाल उड़ाइ । नेमकंवर दरसन करि प्यारे पावोगे उत्तम वास ॥डफ०||३|| हां सषी सहित राजमती चाली, छोडि सकल सिंगार ।
म कंवर चित लायक हो, लियो है संजम मार || डफ० ||५|| जनम मरन मय जीति कै हो, वेळत मुकति मंझारि । अचलकीर्ति जी यौ कहै हौ, मेरौ आवागमन निवारि ॥ डफ० ||६|| "
६६. रामचन्द्र ( वि० सं० १७२० - १७५० )
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ये खरतरगच्छके प्रधान श्री जिनसिंहसूरिराजकी शिष्य परम्परामे थे । श्री जिनसिंहरिके शिष्य पद्मकीर्ति चौदह विद्याओंमें पारंगत और चारों वेदोंमें निष्णात थे। उनके भी शिष्य पद्मरंगकी विद्वत्ता और सुजनताका चारों ओर यश फैला हुआ था । लोग उनकी महिमाके गीत गाते फिरते थे । उन्होंके शिष्य श्री रामचन्द्र थे 1
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१. श्री जिनसिंह सूरि सुखकारी, नाम जपै सब सुर नर नारी ।
जाऊँ शिष्य सिरोमण कहिये, पद्मकीर्ति गुरुवर जसु लहिये ॥ ९२ ॥