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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
२५३ "मिश्रबन्धविनोद'में उनका उल्लेख 'रामचन्द्र साको बनारसवाले' कहकर हुआ है, किन्तु न तो ये बनारसके रहनेवाले थे और न इनका उपनाम ही 'साको' था। ये साधु थे, अतः घूमते ही रहते थे। हो सकता है कि कभी बनारस भी गये हों। 'साकी' 'सक्को' का बिगड़ा हुआ रूप है। इन्होने 'रामविनोद' की अन्तिम प्रशस्तिमे लिखा है, "उत्तर दिसि खुरसांन मैं, बानु देस प्रधान । सजल भूमि रै सर्वदा, सबकी सहर सुम थान।" इसका अर्थ है कि उत्तर दिशाम खुरासांन देशके अन्तर्गत 'बानू' नामका प्रदेश था, जिसका 'सक्को' प्रसिद्ध नगर था। वहाँ पानीको कोई कमी नहीं थी, भूमि हरी-भरी थी। स्थान शुभ माना जाता था। कविने लिखा है कि उस समय वहां औरंगजेवका राज्य था। उसने शासनको प्रशंसा की है। वहां सुख और शान्ति थी। रामचन्द्रने उसी नगरमे 'रामविनोद'का निर्माण किया था। यहां भी ये घूमते-घूमते ही पहुंचे होंगे। इनके मूल निवासस्थानके विषयमे निश्चयपूर्वक कुछ भी नही कहा जा सकता। रायबहादुर बाबू हीरालाल बी० ए० कटनीने इनकी भाषापर राजस्थानीके विशेष प्रभावको देखकर इनको राजपूतानेका रहनेवाला घोषित किया है। श्री अगरचन्दजी नाहटाने भी इनके ग्रन्थोपर राजस्थानीके प्रभावको बात स्वीकार की है।
ये जिस शाखाके साधु थे, वह विद्वत्ता, साधुता और कविता तीनों ही के लिए प्रसिद्ध रही है। जिनसिंहमूरिका तो अकबर और सलीम दोनो ही ने सम्मान किया
विद्या च्यार दस कंठ बखाणे, वेद च्यार को अरथ पिछाने, पद्मरंग मुनिवर सुखदाई, महिमा जाकी कही न जाई ॥१३॥ रामचन्द मुनि इन परिभाख्यौ, सामुद्रिक भाषा करि दाख्यो । जां लगि रहिज्यो सूरि जी चंदा, पढहु पंडित लहु आणंदा ॥९॥ सामुद्रिक भाषा, प्रशस्ति, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्योंकी खोज, भाग
२, पृ० १२४-२५॥ १. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, पृ० ४६६, संख्या ४२३ । २. जैन गुर्जरकविओ, खण्ड २, भाग ३, संख्या १८०४ पर रामविनोदकी प्रशस्ति,
पृ० १२१७। ३. मरदानौ अरु महाबली, अवरंग साहि नरंद,
तास राजमै हर्षसुं, रच्यो शास्त्र आनंद ।। ३०० ।।
वही। ४. का० ना० प्र० पत्रिका, नवीन संस्करण, भाग ८, पृ० ४६७ । ५. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोकी खोज, भाग २, पृ० १५६ ।