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________________ २४४ हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि था। रामचन्द्र भी एक यशस्वी व्यक्ति थे। वैद्यक और ज्योतिषपर तो उनका एकाधिकार था। उनके द्वारा रचे गये स्तवनोंसे स्पष्ट है कि कवितामें भी उनका असाधारण प्रवेश था। दार्शनिक विद्वत्तासे सम्बन्धित उनका कोई ग्रन्थ देखनेको नहीं मिलता। इन साधुओंका सम्मान वैद्यक और ज्योतिषके अगाध ज्ञानपर ही टिका था। बड़े-बड़े सम्राट भी इनकी भविष्यवाणियां सुनने के लिए तरसा करते थे। जहांतक कविताका सम्बन्ध है, भक्तिपूर्ण हो होती थी। उनके द्वारा लिखे गये सैकड़ों स्तुति-स्तोत्र प्राप्त होते है। ___ काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके १९०९ और १९११ के खोज विवरणके लिखनेवालेने रामचन्द्रको जैन नहीं माना है। उनका कथन है कि 'रामचन्द्र' नाम किसी जैनका नहीं हो सकता। शायद उनको दृष्टिमे हिन्दू ही रामचन्द्रको भगवान् मानते है, जैनोके भगवान् तो महावीर है। किन्तु 'रामचन्द्रजी' के आदर्श चरित्रको लेकर विपुल जैन साहित्यको रचना हुई है। विवरण-लेखकका दूसरा तर्क है कि श्री रामचन्द्रके 'रामविनोद' के प्रारम्भमे गणेशको वन्दना की गयी है, जो कि हिन्दुओका देवता है, जैनोंका नहीं। किन्तु गणेश तो विद्याका अधिष्ठातृ देव है, और उसकी आराधना हिन्दू तथा जैनोंने ही नही, अपितु मुसलमानो तकने को है। जैनोंके तो अनेक महत्त्वपूर्ण कवियोके साहित्यका प्रारम्भ गणेश-वन्दनासे ही हुआ है। अतः इस आधारपर रामचन्द्रको जैन होनेसे इनकार नही किया जा सकता। तीसरा तर्क यह है कि ग्रन्थमें कहींपर भी जैन-मतका उल्लेख नहीं है । किन्तु वैद्यकसम्बन्धी ग्रन्थमे सैद्धान्तिक विषयके निरूपणको अवसर हो कहां था। इसके अतिरिक्त रामचन्द्रने स्वयं अपने पूर्वगुरुओंके वैद्यक ज्ञानको स्वीकार किया है। वे गुरु जैन थे। जैन होते हुए भी वैद्यकके ग्रन्थमें जैन-तत्त्वोंकी बात न कहना अजैनत्वकी निशानी नहीं है। जैन अथवा अजैनके पास मिलनेसे किसी भी ग्रन्थके रचयिताको जातिका अनुमान लगाना भी ठीक नहीं है। १. भानुचन्द गणिचरितकी भूमिकामें निबद्ध, "Jain priests at the court of Akbar" और "Jain Teachers at the Court of Jahangir" पृ०१०,२०। २. अकबरने हीरविजयमरिसे अपना भविष्य जाननेकी प्रार्थना की थी, किन्तु उन्होंने ___ स्पष्ट रूपसे इनकार कर दिया था। वही, पृ० ७ ३. का० ना०प्र० पत्रिका, नवीन संस्करण, भाग ८, पृ०४६५ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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