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________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य २४१ नवीनताने उसे सरस और मौलिक बना दिया है। आराध्यकी महिमासे सम्बन्धित कतिपय पद्य देखिए, "प्रभुजी पतित उधारन आउ, बाहं गहे की लाज निबाहु । जहां देषो तहां तुमही आव, घट घट जोति रही ठहराय ॥१६॥ मसम व्याध समन्तभद्र को मई, संमौ स्तुत जिण अस्तुति ठई। गई व्याधि विमल मति मई, तहां प्राणपत तुम सुध लई ॥१८॥" कर्म-बत्तीसी इसकी रचना पावानगरमे संवत् १७७७ में हुई थी। इसमें पावानगर और वीरसंघका भी वर्णन है। इसमें बड़े ही सरस ढंगसे कर्मोके प्रभावकी बात कही गयो है । कुल ३५ पद्य है। भाषामें प्रवाह और सरलता है । अठारह नाते इसका निर्माण फिरोजाबादमें किया गया था। हो सकता है कि भट्टारकीय पदपर प्रतिष्ठित होनेके पूर्व ही अचलकीत्तिने इसको बनाया हो। उसमें वह प्रौढ़ता नहीं है जो उनकी अन्य रचनाओंमें पायी जाती है। इसकी एक प्रति श्री जैन पंचायती मन्दिर दिल्ली में सुरक्षित है। जैन-परम्परामे अठारह नातोंकी कथाका प्रचलन बहुत पुराना है । अचलकात्तिने भी किसी संस्कृत कथासे ही इसका कथानक लिया था। रवि-व्रत कथा इनकी बनायी हुई 'रवि-व्रतकथा' भो उपर्युक्त मन्दिरके शास्त्रमण्डारमें ही सुरक्षित है । उसपर रचना-संवत् १७१७ दिया हुआ है। धर्म रासौ ___ इसकी रचना वि० सं० १७२३ में हुई थी। वि० सं० १७२६ की लिखी हुई एक प्रति, महावीरजी अतिशय क्षेत्रके शास्त्रमण्डारमें मौजूद है। पद __अचलकोत्तिने अनेक भक्ति-परक पर्दोका निर्माण किया था। एक सरस पद लूणकरणजी पाण्ड्या मन्दिर जयपुरके गुटका नं० ११४, पत्र १७२-७३ पर अंकित है । कतिपय पंक्तियां इस प्रकार है, १.दि० जैन मन्दिर, बड़ौतकी हस्तलिखित प्रति । २.गुटका नं० १५, वेष्टन नं० ६३७, बधीचन्द्रजीका मन्दिर, जयपुर।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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