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________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि परम्परामें ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी। उनका 'विषापहार स्तोत्र' जैन समाजमें बहुत ही प्रसिद्ध है। अभी उनको एक और रचना 'कर्मबत्तीसी' भी प्राप्त हुई है । इसके अतिरिक्त उनको रची हुई 'रविव्रतकथा' दिल्लीके पंचायती मन्दिरके भण्डारमें सुरक्षित है। यह मुनिश्चित है कि अचलकोत्ति अठारहवीं शताब्दीके कवि थे। उनकी एक-दो रचनाओके काल-संवत्से ऐसा स्पष्ट भी है। वे एक अच्छे कवि थे। उनकी कविता उनके अन्तर्हृदयका निदर्शन है । भाषामें सरलता और प्रवाह है। 'विषापहार स्तोत्र' तो भक्ति-रसका प्रधान काव्य माना जाता है । 'धर्मरासो' भी उन्हींकी कृति है। विषापहार स्तोत्र इस स्तोत्रकी रचना नारनौलमें वि० सं० १७१५ में हुई थी। पड़थ, जिलामैनपुरोको एक प्रतिमें इसका निर्माण-संवत् 'पन्द्रास सत्रा शुभ थान । बरनी फागुन सुदी चौदस जान ।' दिया हुआ है, जो कि अशुद्ध है। काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके सन् १९०० के विवरणमें इसके रचना संवत्का उल्लेख 'सत्रहसे पन्द्रह सुभथान । नारनौल तिथि चौदसि जान' रूपमे हुआ है। जयपुरके सेठ बधीचन्दजोके दिगम्बर जैन मन्दिरमे स्थित इसकी एक प्रतिपर भी रचना-संवत् १७१५ ही दिया हुआ है। दि० जैन मन्दिर, बड़ौतके वेष्टन नं० २७२, गुटका नं० ५७ में भी पृ० ३२ पर एक हस्तलिखित प्रति निबद्ध है। उसमे रचना सं० १७१५ दिया हुआ है। संस्कृतमें महाकवि धनंजयने 'विषापहार स्तोत्र' की रचना की थी। वह एक प्रौढ़ रचना थी और आज भी उसकी ख्याति है। हिन्दीमें उसके अनुकरणपर अनेकानेक विषापहारोंकी रचना हुई, किन्तु वैसी सरसता कोई न ला सका। कवि शान्तिदास और अखैरामके 'विषापहार स्तोत्र' तो जूठन-जाठन-से प्रतीत होते हैं। उनमें कविका हृदय नही रम पाया है। यदि हृदय रमे तो पुराना भाव भी वसन्तकी भांति नये रूपमें लहलहा उठता है। परम्परा-पालनके लिए किया गया कोई भी काम स्वाभाविक नहीं हो सकता। अचलकीतिका 'विषापहार स्तोत्र' भी धनंजयसे अनुप्राणित है, किन्तु हम उसको 'नकल-भर' नहीं कह सकते । भक्तकी भाव-मग्नता और अभिव्यंजनाकी काम महाबली जी, सुन पिय चतुर सुजान ॥५८॥ दिगम्बर जैन पंचायती मन्दिर दिल्लीकी हस्तलिखित प्रति । १. सेठ बधीचन्दजीका दि. जैन मन्दिर, जयपुरके गुटका नं० ३८ और वेष्टन नं० १००२ । इस गुटकेका लेखनकाल सं० १८२३ दिया हुआ है। - - - --
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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