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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि "कूकू चंदन घसिवा घरणी, मांझि कपूर मेलि अति धणी। जिणवर चरण पूजा करी, अवर जन्म की थाली धरी ॥ 'राय' भोग केतकी सवास, सो भाविया वंदऊ जास। 'जिणवर आगै धरै पषालि, जाणि मुकति सिर बंधि पालि ॥४१-४२॥" सन्ध्याका समय है। पवनजैराय मित्रोंसहित अपने मन्दिरके ऊपर बैठे है । घोंसलोकी ओर उड़ते हुए पक्षी आसमानमे शब्द कर रहे है । सरोदरके किनारे आते ही उनका 'पुलक' और भी मुखरित हो उठा। वहाँके वृक्षोंपर ही उनके घोंसले है । दिशाओंका लाल मुख काला पड़ गया है। चकवा-चकवी भी पृथक्पृथक् हो गये हैं । चित्रमे स्वाभाविकता है और रस भी,
"दिन गत भयो आथयो माण, पंषी शब्द करै असमान । मित्त सहित पवनंजै राय, मन्दिर ऊपर बैठो जाय । देखे पंखी सरोवर तीर, करै शब्द प्रति गहर गहीर ।
दसै दिसा मुष कालो भयो, चकहा चकिही अन्तर लयो॥" कविने वीर बालकका ओजस्वी चित्र खोचा है । हनुमान् क्षत्रियके पुत्र थे। वीरता उनका स्वभाव था। उनके बाल-तेजसे शत्रु-घटाएं ऐसे विदीर्ण हो जाती है, जैसे बाल-सूर्यसे अन्धकार फट जाता है। सिंह चाहे छोटा ही हो फिर भी दन्तियोको मारनेमे समर्थ होता ही है। सघन वृक्षोसे व्याप्त वन कितना ही विस्तीर्ण हो, अग्निका एक कण ही उसे जलानेमे समर्थ है,
"बालक जब रवि उदय कराय, अन्धकार सब जाय पलाय ॥ बालक सिंह होय अति सूरो, दन्तिघात करे चकचूरो । सघन वृक्ष बन अति विस्तारो, रत्तो अग्नि करे दह छारो ॥ जो बालक क्षत्रिय को होय, सूर स्वभाव न छाड़े कोय ॥"
प्रद्युम्नचरित्र
इसकी एक हस्तलिखित प्रति आमेरशास्त्रभण्डारमें सं० १८२० की लिखी हुई मौजूद है। इस काव्यको रचना हरसोर गढके जिनेन्द्र मन्दिर में हुई थी। वहाँ देव, शास्त्र, गुरुके भक्त श्रावक लोग रहते थे। प्रशस्तिमें ग्रन्थका रचनाकाल वि० सं० १६२८ दिया गया है। प्रारम्भमें ही जगत्के नाथ तीर्थंकरको वन्दना करते हुए कविने लिखा है कि उनका स्मरण करनेसे मन उत्साहसे भर जाता है। अठारह दोष दूर हो जाते हैं, और छियालीस गुण उत्पन्न होते हैं,