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________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य "हो तीर्थकर बंदू जगनाथ । तोह सुमिरण मन होइ उछाह तो हुआ छ अरु होय जी सी ॥ तिह कारण रहै घट पूरि गुण छीयालीस सोभे भला जी।। दोष अठारह किया दूर तो रास भणौ परचमन को जी ॥" सुदर्शन रास यह रास आमेरशास्त्रभण्डारमे मौजूद है। काव्यको रचना वैशाख शुक्ला सप्तमी वि० सं० १६२९ मे हुई थी। वह सम्राट अकबरका राज्य-काल था। कविने अकबरके लिए लिखा है कि वह इन्द्रके समान राज्यका उपभोग कर रहा था । उसके हृदयमें भारतके षट् दर्शनोंका बहुत अधिक सम्मान था, "साहि अकबर राजई, अहो भोगवे राज अति इन्द्र समान । और चर्चा उर राखै नहीं हो छः दरसण को राखै जी मान ॥२॥" काव्यको भाषापर गुजरातीका प्रभाव है और उसकी रचना साधारण ही कही जा सकती है। भगवान् आदिनाथको प्रणाम करते हुए कविने मंगलाचरणमें लिखा है, "प्रथम प्रणमों आदि जिणिंद, नामि राजा कुल उदयाजी चंद। नगर अयोध्या अपने स्वामी पूरब लाख, चौरासी सी जी आई, मरुदे जी मात हे उर धरिडं।" श्रीपालरास इसकी एक प्रति आमेरशास्त्रभण्डार में मौजूद है । इसमें ४० पन्ने है । कुल पद्योंकी संख्या २९७ है । इसका लिपि संवत् १६८९ और रचना सं० १६३० है। इसमे राजा श्रीपालकी कथा है। वे 'कोटीभट' कहलाते थे। अर्थात् उनमे एक करोड भटोंका बल था। सौन्दर्य में कामदेवके समान थे। पूर्व कर्मोके विपाकसे वे कोढ़ी हो गये। एक राजा अपनी कन्या मैनासुन्दरीसे नाराज होकर उसका विवाह उनके साथ कर गया। मैनासुन्दरी भगवान् जिनेन्द्रकी भक्त थी । उसने भगवान्की भक्ति को और जिनेन्द्रको एक मूतिके प्रक्षालित-जलसे ही अपने पतिका कोढ़ ठीक कर लिया। श्रीपाल फिर पहले-जैसे ही सर्वांगसुन्दर हो गये। इस प्रकार काव्यमे जिनेन्द्रको 'भक्ति ही प्रमुख है। मनोरम कथानक और भक्तिपूर्ण भावोने काव्यको उत्तम कोटिका बना दिया है। भापामें शिथिलता है किन्तु खटकनेवाली नहीं । मंगल पद्य इस प्रकार है,
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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