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________________ ११४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि " हो स्वामी प्रणमो आदि जिणंद, बंदौ श्रजित होई आनंद । संबंदौ जगति स्यौ, हो अभिनंदन का प्रणमो पांइ ॥" भविष्यदत्त कथा धनपालकी अपभ्रंश 'भविसयत्तकहा' प्रो० याकोबी द्वारा सम्पादित होकर सन् १९९८ मे म्यूनिककी 'रॉयल एकेडेमी' से प्रकाशित हुई थी । धनपालके पश्चात् अनेकानेक भविष्यदत्तकथाओंका निर्माण होता रहा । प्रस्तुत काव्य भी उसी परम्पराकी एक देन है । 'भविष्यदत्तकथा' को पंचमी व्रत कथा भी कहते है । इसमे पंचमी - व्रतका माहात्म्य बताया गया है । ग्रन्थका मुख्य आधार भक्ति है । भगवान् जिनेन्द्रकी भक्तिके कारण ही भविष्यदत्त अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त के द्वारा दिये गये भीषण दुःखोंका उन्मूलन कर सका। उसकी माँ 'सुयपंचमी' व्रत रखती है, और वह स्वयं भगवान् जिनकी पूजा करता है । अतः ठीक समयपर एक देवने सहायता की और उसको पत्नी तथा धन-सम्पत्ति दोनों ही प्राप्त हो गये । इसकी एक प्रति वि० सं० १६९० की लिखी हुई आमेरशास्त्र भण्डार में मोजूद है । इसमें ६७ पन्ने है । प्रशस्तिमे लिखा है कि इसका निर्माण सं० १६३३ मे कार्तिक सुदी चौदसको शनिवारके दिन हुआ था । उस दिन स्वाति नक्षत्र और सिद्धि योग था । इस काव्यकी रचना ढूंढाहड देशके सांगानेर नामके स्थानपर हुई थी । सांगानेरकी शोभाका वर्णन करते हुए कविने लिखा है कि उसकी चारों दिशाओं में सुन्दर बाज़ार थे, जिनमे मोती हीरोंका व्यापार होता ही रहता था । वहाँ भगवान् जिनेन्द्रका एक बहुत ऊँचा मन्दिर भी था । उसमें वेशक़ीमतो तोरण टॅगे थे, बहुमूल्य चंदोवा तने थे । वहाँ राजा भगवतदास राज्य करता था । अनेकों राजकुमार उसकी सेवा करते थे । प्रजाको सब प्रकारका सुख था । दुःखी और दरिद्रोंकी भी आशाएं पूरी होती रहती थीं। वहीं बड़े-बड़े धनवान् श्रावक रहते थे । वे जयजयकार करते हुए भगवान् अरिहन्तको पूजा प्रतिदिन करते थे, 1 "देस ढूंढाहर सोभा वणी, पुंजें तहां आलि मणतणी । निमल तले नदी बहु फिरै, सुख से बसै बहु सांगानेरि ॥ १. सोलह से तैतीसा सार, कातिक सुदी चौदस सनिवार । स्वाति नक्षत्र सिद्धि शुभजोग, पीडा खन व्यापै रोग ॥ अन्तिम प्रशस्ति ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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