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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य चहुंदिसि बाण्या मला बजार, भरे पटोला मोती हार । भवन उत्तुंग जिनेश्वर तणा, सोभै चंदवा तोरण घणा ॥ राजा राजै भागवतदास, राजकुँवर सेवहिं बहु तास । परजा लोग सुखी सुख बसें, दुखी दलिद्री पुरवै भास ॥ श्रावक लोग बसै धनवंत, पुजा करहि जयहि अरहंत । उपराउ परी बैरन कास, जिहि अहिमिंद सुर्ग सुख वास ॥" ११५ ३२. कुशललाभ ( वि० सं० १६१६ ) कुशललाभ जैसलमेरके रावल हरराजके आश्रित कवि थे । रावल हरराजका समय सत्तरहवीं शताब्दीका प्रथम पाद माना जाता है । कुशललाभका रचनाकाल भी यह ही था । उक्त रावलजीके कहनेसे ही उन्होने राजस्थानीके आदिकाव्य 'ढोला मारू रा दूहा' के बीच-बीचमे अपनी चौपाइयाँ मिलाकर प्रबन्धात्मकता उत्पन्न करनेका प्रयास किया था । इसपर डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीका कथन है, "मुझे लगता है कि भावपूर्ण पदोके बीच रासलीला आदिके समय कथासूत्रको जोड़ने के लिए ये चौपाई-बद्ध पद बादमे जोड़े गये होगे। ढोलाके दोहोंका कथासूत्र मिलानेमे कुशललाभने इसी कौशलका सहारा लिया था ।" यह कहना ठीक नहीं है कि समय-समय पर उसमे दाँव-पेंच भरी हुई कथाओंकी चिप्पियाँ लगाकर उसे मुक्त कसे 'आख्यानक काव्य' बना देनेके प्रयत्न हुए है ।" इन चौपाइयोंसे विरहरसमे कोई व्याघात नही पहुँचा है, अपितु कथाके एक सूत्रमे बँध जानेसे 'प्रबन्धकाव्य' का आनन्द आया है, तो फिर वे 'कथाओको चिप्पियाँ' कैसे हो सकती है । इसके अतिरिक्त वे 'दांव-पेंच भरी' तो तब हों, जब उन्होंने मूलकथाको स्वाभाविकताको विनष्ट किया हो । किन्तु ऐसा नही हुआ है । 3 कुशललाभ खरतरगच्छ के समर्थ गुरु श्री श्री अभयदेव उपाध्याय के शिष्य थे १. हिन्दी साहित्यका आदिकाल, बिहार- राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १६५२ ई०, पृष्ठ ६७/ २. नामवरसिंह, हिन्दी के विकास में अपभ्रंशका योग, साहित्यभवन लिमिटेड, इलाहाबाद, नवीन संस्करण, १६५४ ई०, पृष्ठ २८२ | ३. श्री षरतर गच्छि सहि गुरुराय, गुरु श्री अभयधर्म उवझाय । तेजसार रास, अन्त, १५वॉ पद्य, जैनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृष्ठ २१४ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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