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________________ जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ ३१ राजुलका सौन्दर्य है, उनका प्रेम और विरह भी, किन्तु सब कुछ शोलके ऐसे तागेमें बंधा है, जिसे अश्लीलता कभी तोड़ ही नही सकी । जहाँतक मुक्तक काव्योंकी दाम्पत्यरतिका सम्बन्ध है, वह चेतन और सुमतिके बीचमें हो चलती रही । अर्थात् हिन्दीके जैन कवियोंने दाम्पत्यरतिका सम्बन्ध भौतिक क्षेत्रसे जोड़ा ही नही । सब कुछ आध्यात्मिक ही रहा। उसे प्रकट करने के लिए जिन रूपकोंकी रचना हुई, उनमे भी विलासिताको स्थान न मिला । उपमा और उत्प्रेक्षाएँ भी मांसल प्रेमके क्षेत्रसे न ढूँढी गयीं । अशान्तिका तीसरा कारण है राग राग मोहको कहते है । जैन लोग मोहनीय कर्मको सबसे बड़ा मानते है । उसे काटनेमे सबसे अधिक समय लगता है। उसके कट जाने पर यह जीव परम शान्तिका अनुभव करता है । जैन लोग वीतरागकी उपासना करते है। वीतरागी की भक्तिसे ही समूचा जैन साहित्य भरा पड़ा है । जैन हिन्दी काव्य में तो सबसे अधिक राग छोड़ने की बात कही गयी है। वीतरागी प्रभुपर भी भक्त इसीलिए रीझा है कि वह रागको जीतकर ही प्रभु बने है । जैन भक्त कवि अन्य देवोकी उपासना इसीलिए नही कर सका कि १ "देखे देखे जगत के देव, राग रिस सौं भरे । 'के संग कामिनि कोऊ आयुधवान खरे ॥" काहू द्यानतरायने भी ऐसे ही वीतरागी भगवान्‌को प्रशंसा करते हुए कहा है कि हमने तीनों भवनोको छान डाला है, आपके समान कोई नहीं देखा । आप स्वयं तरे और संसार के जीवोको तारा, ममता धारण नहीं की । और देव रागी, द्वेषी अथवा मानी हैं, तुम राजुलको छोड़कर वीतरागी बने हो, २ "तुम समान कोउ देव न देख्या, तीन भवन छानी । आप तरे भवजीवनि तारे, ममता नहिं भनी ॥ और देव सब रागी द्वेषी, कामी कै मानी । तुम हो वीतराग अकषायी, तजि राजुल रानी ॥ " १. भूधरदास, भूधरविलास, कलकत्ता, २५वॉ पद, पृ० १४ । २. द्यानतराय, धानतपद संग्रह, कलकत्ता, २८वॉ पद, पृ० १२ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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