SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अवश्य है, किन्तु बात मांस और मदिरा तक नहीं बढ़ सकी है। जैन अपभ्रंशके 'दोहापाहुड' आदि ग्रन्थोंमे तान्त्रिक-युगके कतिपय शब्द पाये जाते है, फिर भी जैनभक्ति, चाहे वह पंचपरमेष्ठीसे सम्बन्धित हो, चाहे यक्ष आदि देवताओंसे अथवा पद्मावती आदि देवियोसे, हिंसासे यत्किचित् भी कभी भी प्रभावित नही हुई। जैन मन्दिर और अन्य भक्ति-स्थल सदैव अहिंसाके निदर्शन बने रहे। हिन्दीके जैनभक्तिपरक काव्यमे तान्त्रिक शब्दोंका अभाव तो है ही, हिन्दीके कवियोंने मन्त्राधिष्ठात्री पद्मावती आदि देवियोंकी वन्दना भी अल्पादपिअल्प हो की है। जैन हिन्दीके सभी प्रबन्ध काव्योंका प्रारम्भ सरस्वतीकी वन्दनासे हुआ है। सरस्वती ही उनकी इष्टदेवी है। मुक्तक काव्योंमें भी सरस्वतीकी पृथक् स्तुतियां रची गयी है । सरस्वती देवीको जैन कवियोंने शान्तरसको प्रतीकके रूपमें ही प्रस्तुत किया है। बनारसीदासको सरस्वतीकी स्तुति-वन्दनाका एक पद्य इस प्रकार है, "समाधान रूपा अनूपा अछद्रा, अनेकान्तधा स्याद्वादामुद्रा । त्रिधा सप्तधा द्वादशाङ्गी बखानी, नमो देवि वागीश्वरी जैनवानी ॥ अकोपा अमाना अदम्मा अलोमा, श्रतज्ञानरूपी मतिज्ञानशोभा । महापावनी भावना भव्यमानी, नमो देवि वागीश्वरी जैनवानी ॥" भक्तिके क्षेत्रमें अशान्तिका दूसरा कारण है विलासिता। जैन साहित्यकारोने विलासका सम्बन्ध भक्तिसे नहीं जोड़ा। जैन-साहित्यमें कोई मंगलाचरण ऐमा नही, जिनमें जगन्माताओंके सुहागरातोंका वर्णन हो। 'गीतगोविन्द'की राधा और 'रिट्ठणेमिचरिउ' की राजुलमें बृहदन्तर है । नेमिनाथ और राजुलसे सम्बन्धित सभी जैन काव्य विरह-काव्य है। उनमें राजुलके विरहका वर्णन है। राजुल विरहिणी थी उस पतिकी, जो सदाके लिए वैराग्य धारण कर तप करने गिरिनारपर चला गया था। अतः उसका विरह कामका पर्यायवाची नही था । उसमें विलासिताको गन्ध भी नहीं है। नेमिनाथ और राजुलको लेकर लिखे गये मंगलाचरण सात्त्विकतासे हो संयुक्त है। दूसरी ओर 'गीतगोविन्द' की राधाकी मुखर विलासिताको रवीन्द्रनाथ ठाकुरने भी स्वीकार किया है। गीतगोविन्दने भक्तिकाव्योंमे सस्ते श्रृंगारको स्थान दिलाया। हिन्दीके कवि विद्यापतिकी राधा भक्तिके स्थानपर विलासिताकी ही प्रतीक है। उसपर गीतगोविन्दका स्पष्ट प्रभाव है। हिन्दीके जैन महाकाव्योमे सीता, अंजना और १. बनारसीदास, शारदाष्टक, ५-६ पद्य, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० १६६ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy