SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि कुमुदचन्दकी विनतियां भक्तिरसकी पिचकारियां ही है। उनका संकलन मन्दिर ठोलियान, जयपुरके गुटका नं० १३१ मे प्राप्त होता है। इस गुटकेका लेखनकाल वि० सं० १७७९ दिया हुआ है। एक विनतीकी कुछ पक्तियाँ इस प्रकार है, "प्रभु पायं लागौं करूं सेव थारी । तुम सुन लो अरज श्री जिनराज हमारी। धौं कस्ट करिदेव जिनराज पाम्यो है सबै संसारनौं दुष वाम्यौ । जब श्री जिनराजनौ रूप दरस्यो जब लोचना सुष सुभाधार वरस्यौ । लहया रतनचिंता नवनिधि पाई मानौं भागणे कल्पतर आजि भायो। मनवांछित दान जिनराज पायौ गयो रोग संताप मोहि सरब त्यागी ॥" कुमुदचन्दके पद मन्दिर लूणकरणजी पाण्डया, जयपुरके गुटका नं० ११४ मे अंकित है । एक पदमे प्रभुको मीठा उपालम्भ देते हुए भक्त कविने लिखा है, "प्रभु मेरे तुमकुं ऐसी न चहीए। सपन विधन धेरत सेवक कू मौन धरी क्यों रहिए । बिघन हरन सुख करन सबनि कू चित्त चिंतामनि कहिए । अशरण शरण अबन्धु कृपासिन्धु को विरद नीवहिए ॥ हम तो हाथ विकाने प्रभु के भब जो करैं सो सहिए। तो मनि कुमुदचन्द कहें शरणागति की सरम जु गहिए॥" उनकी कृतियोंमें 'भारतबाहुबलिछन्द' एक खण्डकाव्य है। इसके कथानकमें भरत और बाहुबलिके प्रसिद्ध युद्धको कथा है। दोनों ही भगवान् ऋषभदेवके चक्रवत्तॊ पुत्र थे। भरत बड़े और बाहुबलि छोटे थे। भरतने अपने चक्रवर्तित्वको सार्वभौम बनानेके लिए बाहुबलिको भी झुकाना चाहा। दोनोमे द्वन्द्व युद्ध हुआ। जीत बाहुबलिको हुई, किन्तु उन्हे संसारसे वितृष्णा हो गयी और वे वनमे जाकर तप करने लगे। पूरे काव्यमे दो रस प्रमुख रूपसे पनप सके है : वोर और शान्त । बाहुबलिका समूचा जीवन एक आदर्शचरित्र है । वे वीरताके वरेण्य और शान्तिके अग्रदूत है । वे ही दोनों रसोंके नायक हैं । द्वन्द्व युद्धको जाते हुए उनका एक दृश्य है,
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy