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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
"चाच्या मल्ल अखाडे बलीभा,
सुर नर किम्मर जोवा मलीभा । काछया काछ कशी कह तांणी, बोले बांगड बोली वाणी। भुजा दंड मन सुंड समाना, ताडतावंखारे नाना। हो हो कार करि ते धाया, वछो वच्छ पड्या ले राया। हकारे पन्चारे पाडे, वलगा वलग करी ते वाडे । पग पडधा पोहोवी-तल बाजे, कडकडता तरुवर से भाजे । नाठा वनचर त्राठा कायर, छूटा मपगल फूटा सापर । गड गडता गिरिवर ते पडीओ, फूत फरंता फणपति दरीमा। गड गडगडीमा मंदिर पढीमां,
दिग दंतीव मक्या चल चलीभा ॥" इस काव्यका निर्माण वि० सं० १६७० ज्येष्ठ शुक्ला छठको हुआ था। इसको एक हस्तलिखित प्रति आमेरशास्त्रभण्डार जयपुरके गुटका न० ५० में पृ० ४० से ४८ तक अंकित है। __ 'ऋषभ-विवाहला' एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इसकी रचना वि० सं० १६७८ मे घोघानगरमे हुई थी। यह उपर्युक्त गुटकेमे ही पृ० २२७ से २३४ तक निबद्ध है। इसमे ऋषभदेवकी माके १६ स्वप्न देखनेसे लेकर ऋषभदेवके विवाह पर्यन्तका विशद वर्णन है । अन्तमे वैराग्य धारण करने और मोक्ष-प्राप्तिका उल्लेख है । यह सब कुछ ग्यारह ढालोंमे सम्पन्न हुआ है । अन्तिम ढाल मुख्य है। उससे 'विवाहला' शब्द सार्थक सिद्ध होता है। भक्तिपरक कृतियोमे भौतिक विवाह 'विवाहला'नहीं कहलाता, जब आराध्यदेव दीक्षाकुमारी, संयमश्री या मुक्तिवधूका वरण करता है, तो वह 'विवाहला', 'वीवाहला', 'बीवाहलौ' आदि संज्ञाओसे अभिहित होता है। 'ऋषभ-विवाहला'को अन्तिम ढालमे मुक्तिवधूके साथ ऋषभदेवका विवाह हुआ है।