________________
हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि पिय नूतन नारि सिंगार किये, अपनी पिय टेर बुलावेंगी। पिय बारहिबार बरे दियरा, जियरा तुमरा तरसावेगी ॥१०॥"
यहाँ पियको तरसानेकी ओटमे राजुलका तरसना ही ध्वनित हो रहा है। किन्तु नेमिनाथ कानिकके इस साज-शृंगारसे विचलित होनेवाले जीव नही है। उन्होंने आत्मा और शरीरके भेदको समझ लिया है। यह प्रसन्नता शरीरसे सम्बन्धित है, आत्मासे नही । कलिधारमे वह हो डूबता है जो जड़ और चेतनके भेदको नहीं समझता । जैसे हंस दूधको पी लेता है, और जलको छोड़ देता है, वैसे ही जब यह जीव समझेगा, तव कही वह परमात्मारूप आत्माको समझ सकेगा।
"तो जियरा नरसै सुन राजुल, जो तन को अपनो कर जाने । पुद्गल मिन्न है मिन्न सबै तन, छोडि मनोरथ आन समानै । बूढ़ेगी सोई कलिधार में, जड़ चेतन को जो एक प्रमान ।
हंस पिवै पय मिन्न करै जल, सो परमातम आतम जानै ॥११॥" नेमि-ब्याह'
यह एक छोटा-सा खण्ड-काव्य है। इसमे नेमिनाथके विवाहकी कथा है । नेमिनाथके पिताका नाम समुद्रविजय और मांका नाम शिवदेवी था। इनका जन्म सौराष्ट्रान्तर्गत द्वारावतीमे हुआ था। यह यादववंशी राजकुमार थे। कृष्ण और बलभद्र इन्हीके वंशज बड़े भाई थे। नेमिकुमार बचपनसे ही शक्तिसम्पन्न और धर्मात्मा थे। इनका विवाह झूनागढ़के राजा उग्रसेनकी कन्या राजुलके साथ निश्चित हुआ। बारात पहुंची। अगवानीके उपरान्त टीकाके लिए जाते समय अनेक पशुओंको बंधे और चीत्कार करते देखा। उस करुण-क्रन्दनको सुनकर उनको वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे तुरन्त ही वीतरागी दीक्षा ले गिरिनारपर तप करने चले गये। मंगलगीत रुक गये, शहनाइयां शान्त हो गयी। मां-बापने राजुलको बहुत समझाया, किन्तु उसने अन्यको पति चुननेसे स्पष्ट इनकार कर दिया। वह भी नेमीश्वरको ही अनुगामिनी बनी।
विनोदीलाल चित्र उपस्थित करनेमे अनुपम थे। दुलहा नेमीश्वर विवाहके लिए जा रहे है। सिरपर मौर रखा है, और हाथोंमे कंकणकी डोरी कसकर बांध दी गयी है । कानोमें कुण्डल झलक रहे हैं, और भालपर रोली विराजमान हैं। वक्षस्थलपर पड़े मोतियोंके हारकी तो शोभा ही न्यारी है । देखिए,
"मौर धरो सिर दूलह के कर कंकण बांध दई कस डोरी।
कुंडल कानन में झलके अति माल में लाल विराजत रोरी । १. इसकी हस्तलिखित प्रति, जैन सिद्धान्त भवन, पारा में मौजूद है।