________________
जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
३१५ "आस्रव होय जहाँ पर शोभित, शीत लगै अरु पौन झकोरे । इंद्विय पांच पसार जहां तहां, राग रोष ते नातो हि जोरै ॥ आठ महामद माते रहैं, पर द्रव्य को देख जहां चित दौरै।
जो पर आप विचार न राजुल, तो गृह आपत आपही बार ॥१५॥" जेठका माह लगनेपर बहुत अधिक गरमी पडेगी, लू लगेगी और जलती धूपमे बड़े-बड़े पर्वत भी बह जायेंगे। उस समय तो पक्षी और पतंगे तक अपने-अपने घरमे ही रहना पसन्द करेंगे। भूख और प्याससे शरीर सूख जायेगा। ऐसी दशामे पतिका महाव्रत कैसे निभ पायेगा। राजुल चाहती है कि उसका पति इन कष्टोको न भोगे । उसका मन प्रियके सुखमे तन्मय है। उसे कामकी प्यास नही, पतिके हितको चिन्ता है,
"धर्म की बात तो साँची है नाथ, पै जेठ में कैसे धर्म रहैगो। लह चलै सरवान कमान ज्यौं, धाम परे गिरमेरु बहैगो। पक्षी पतंग सबै डर हैं, अपने घर को सब कोई चहैगो । भूख-तृषा अति देह दहै तब, ऐसो महाव्रत क्यों निबहेगो ॥२४॥"
जेठको ऐसी भीष्म दोपहरीसे नेमीश्वरको किंचिन्मात्र भी भय नही है । उनको मालूम है कि नर-भव-दुर्लभ है, और उसमे भी श्रावक-योनि । अतः अब दशलक्षण
और सोलह भावनाओंवाला जिन-धर्म पाल लेना चाहिए। उसीसे इस जीवका कल्याण हो सकता है। जेठ नेमीश्वरके भयको नहीं, अपितु वीतरागी भावको जगाता है।
“दुर्लभ है नर को भव राजुल, दुर्लम श्रावक योनि हमारी । दुर्लभ धर्म जु है दशलच्छन, दुर्लभ षोडश मावना भारी। दुर्लभ श्री जिनराज को मारग, दुर्लभ है शिवसुन्दर नारी। यह सब दुर्लभ जान तब, जब दुर्लभ है सन्यास की तैय्यारी ॥२५॥" विरहके दु.खमे आनन्ददायक वस्तुएं भी दुःख देनेवाली हो जाती है। कार्तिकका महीना है, सब स्त्रियां घर सजा रही है । भाँति-भांतिके चित्रोको रचना कर मंगल-गीत गाती है। पियको बुलाकर नये-नये शृंगार करती है । और दीवालीके दीपक जलाते हुए तो जैसे उनका हर्ष ही फूटा पड़ता है। किन्तु इस सबको देखकर राजुलका जी तरसकर रह जाता है। सबके पति घर आ गये किन्तु राजुलका नहीं आया। फिर भी वह "बिछुरी मोरि जोरी' कहकर झुरती नही और न अपने सिरमे छार मेलती है। देखिए,
"पिय कातिक में मन कैसे रहे, जब भामिनि मौन सजावेगी। रचि चित्र विचित्र सुरंग सबै, घर ही घर मंगल गावेगी।