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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
सोचती कि ऐसे जाड़ेमे प्रवासी पतिका क्या हाल होगा। विनोदीलालकी नायिकाको पतिका अधिक ध्यान है, अपना नही, पशुओंको करुण दशाको देखकर नेमीश्वर विवाह-द्वारसे वापस लौट गये। किन्तु राजुलने उन्हीको अपना पति माना । वह उनके पास गयी, और कहा कि हे पिय ! सावनमे व्रत मत लो। जब घनघोर घटाएँ घिरेगी, मोर शोर मचायेंगे, कोकिल कुहकेगी, दामिनी दमकेगी और पुरवाईके झोंके चलेंगे, तो तुम्हारा तप-तेज क्षण-मात्रमे नष्ट हो जायेगा,
"पिया सावन में व्रत लीजै नहीं, धन घोर घटा जुर आवेगी । चहुं ओर ते मोर जु शोर करें, वन कोकिल कुहक सुनावैगी ॥ पिय रैन अँधेरी में सूझै नहीं, कछु दामन दमक डरावेगी।
पुरवाई की झोंक सहोगे नहीं, छिन में तप तेज छुड़ावैगी ॥४॥" नेमिनाथको यह मालूम था कि सावनकी प्रकृति उतनी भयावह नही हो सकती जितना कि प्रबल यमराज स्वयं है, जो प्रत्येकके लिए अनिवार्य रूपसे आता है। सावनकी प्रकृति नेमिनाथमें साहस और वीरताका संचार करती है,
“या जिय को कोई न राखनहार, कहो किसकी शरणागत जैये । काल' बली सबसों जग में, तिह सों निशिवासर देख डरैये ॥ इंद्र नरेंद्र धरेंद्र सबै, जम आन परै तब बांध चलये।
यातें कहा डर सावन का सुन, राजुल चित्त को यों समुझेये ॥५॥" पौषके माहमे घना जाड़ा पड़ता है। सौड़मे भी शीत नही जाती। उस समय राजुलको अपनी चिन्ता नही, वह पियकी बात ही सोचती है कि जब उन्हें शीत लगेगा तो क्या मोठेंगे ? पत्तोंकी 'धुवनी' तो पर्याप्त न होगी। इस ऋतुमे ही कामदेव अपनी सेना लेकर आक्रमण करता है, उनका शरीर कोमल है, कैसे मुकाबला करेंगे । भारतीय नारीको पतिके सुख-दुःखकी चिन्तामें जो सात्त्विकता है,
"पिय पौष में जाड़ो परैगी धनो, बिन सौंड़ के शीत कैसे मर हो। कहा ओढोगे शीत लगे जबही, किधौं पातन की धुवनी धर हो । तुम्हरो प्रभु जी तन कोमल है, कैसे काम की फौजन सों लर हो।
जब आवेगी शीत तरंग सबै, तब देखत ही तिनको डर हो ॥१४॥" किन्तु नेमोश्वरका विचार है कि ठण्डी हवाके झोके इस शरीरका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। शरीरका बिगाड़ तो विविध कर्मोके आस्रवसे होता है, रागद्वेषसे होता है, इन्द्रियोंको वश्यतासे होता है और 'पर' को 'स्व' माननेसे होता है। जिसने 'स्व'का विचार कर लिया है, वह वनमे रहे या घरमे, डूब नहीं सकता। इस भांति पौषकी सर्दी नेमीश्वरको नहीं सता पाती और न कामदेव ही आक्रमण कर पाता है,