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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य अपनेको हीन और दीन कहा है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे वास्तवमे वैसे थे। उस समय भगवान्के समक्ष अपनी लघुताके प्रदर्शनका यह ही ढंग था। महात्मा तुलसीदासने भी ऐमा ही किया है । विनोदीलाल भगवान् नेमीश्वरके परम भक्त थे। उनका अधिकांश साहित्य नेमिनाथके चरणोमे ही समर्पित हुआ है। विवाह-द्वारसे लौटते नेमीश्वर और विलाप करती राजुल, उन्हे बहुत ही पसन्द है। राजुलके बारहमासोंमे शृंगार और भक्तिका समन्वय हुआ है ।। __राजुल भगवद्विषयक अनुरागका सरस निदर्शन है। उसमे जैसे शील और सौन्दर्यको संजोया गया, अप्रतिम है। केवल नेमीश्वर ही नहीं, अन्य तीर्थंकरोंकी भक्तिमे भी विनोदीलालने बहुत कुछ लिखा है। 'चतुर्विशति जिन स्तवन सवैया' इसका दृष्टान्त है। इससे अतिरिक्त 'नौका बन्ध', 'प्रभात जयमाल', 'फूलमाल पच्चीसी' और 'रत्नमाल' सरसभक्तिके प्रतीक है। भगवान् ऋषभदेवकी भक्तिके कारण हो उन्होने 'भाषा-भक्तामर' की रचना की थी। वह संस्कृतके प्रसिद्ध स्तोत्र 'भक्तामर'को छायापर बना है। किन्तु उसकी भाषा-शैली मौलिक है । मूल कविके भावोमे व्याघात नही आ पाया है। यह हो उसकी विशेषता है । 'श्रीपाल विनोद' भो ऐमा ही एक अनुवाद है। विनोदीलालको जन्मसे ही भक्त हृदय मिला था। उनकी कृतियोमे तन्मयताका भाव सर्वत्र पाया जाता है। प्रसादगुण उनको विशेषता है। नेमि-राजुल बारहमासा ___यह बहुत पहले ही 'बारहमासा-संग्रह मे प्रकाशित हो चुका है । साहित्यमें 'बारहमासों का प्रचलन बहुत पुराना है। उसका प्रारम्भ लोक-गीतोंसे मानना चाहिए । भारतके प्रत्येक भागको जन-भाषामें बारहमासे प्रचलित है । भाव भी सबके मिलते-जुलते है। मानव-मन किभो भी देश और कालका हो, सदैव एक रहा है । मनुष्यके इस सामान्य मनको लेकर चलनेवाला साहित्य ही अमर हो सका, अवशिष्ट तो कालके थपेड़ोको न सहकर मर गया। बारहमासे उसी अमर साहित्यका प्रतिनिधित्व करते है। हिन्दीके अन्य बारहमासोमे विरहिणीका अपना दुःख तो दिखाया गया है, किन्तु दूरस्थ पतिके दुःखका उसे ध्यान ही नहीं है, जायसीको नागमतीका जाड़ा जब रुईसे भी नहीं जाता, तो वह पतिको बुलाना चाहती हैं, किन्तु वह यह नही १. देखिए जैन पुस्तक भवन, कलकत्तासे प्रकाशित, बारहमासा संग्रह, पृ० २३-३० ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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