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________________ ३१२ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि है । उस समय वहां वादशाह औरंगजेबका राज्य था । कविने उसकी अत्यधिक प्रशंसा की है। विनोदीलाल औरंगजेबके दरबारी कवि नही थे, यह सुनिश्चित है। अतः उनके द्वारा की गयी प्रशंसा निःस्वार्थ ही कही जायेगी। शायद उन्होंने जैसा देखा वैसा ही लिखा। न जाने क्यों औरंगजेबके शासन-कालमे हुए जैन-हिन्दीके सभी कवियोंने मुक्त कण्ठ और एक स्वरसे उसकी प्रशंसा की है। हो सकता है कि इतिहासके नये जिज्ञासुओको इससे कुछ मौलिक सामग्री उपलब्ध हो सके। विनोदीलाल कुछ दिनोंके लिए दिल्लीमें भी आकर रहे थे। वहाँपर ही उन्होंने 'भक्तामर भाषा-कथा' और 'सम्यक्त्व-कौमुदी'की रचना को । सच तो यह है कि उनका झुकाव जैन धर्मके भक्ति-अंशकी ओर हो अधिक था। शाहजहाँपुरमे भी वे इसो रूपमें प्रसिद्ध थे। उनका जन्म अग्रवाल वश और गर्ग गोत्रमें हुआ था। इनके विषयमे मिश्रबन्धुओंने लिखा है, 'ये हीन श्रेणीके थे, करौली नरेशके यहां रहते थे और देवीदास इनके आश्रित थे। विनोदीलाल ने अनेक स्थानोंपर १. कौशल देश मध्य शुभ थान । शाहिजादपुर नगर प्रधान ॥ गंगातीर बसे शभ ठौर। पटतर नाहीं तास पर और।। बसे महाजन बहुविधि लोग । अपने धर्म लीन संभोग ।। श्रावक लोग बसें जहं घने । जैन धर्म रत सत आपने ॥ चैत्यालय जिनवर के तीन । चित्र विचित्र रचित प्रवीन ॥ धर्म ध्यान सब विधि सो करे । जती व्रती को अति आदरे ॥ काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाका त्रैवार्षिक बारहवॉ विवरण, परिशिष्ट २, पृष्ठ १५७४, भक्तामर चरित, बाराबंकीवाली प्रति। २. नौरंग साहिबली को राज । पातसाह सब हित सिरताज ॥ सुख विधान सक बंध नरेस । दिल्लीपति तप तेज दिनेस ॥ अपने मत मे सम्यक् वंत । शील शिरोमणि निज तिय कंत ।। दीप दीप है जाकी आन । रहै साह अरु संका मान ॥ साहिजहां के वर फरिजंद । दिन-दिन तेज बढ़े ज्यों चन्द । भयो चकत्ता उनस उदोस । सिंह बली बन जैसे होत ॥ बही। ३ ते पुर लाल विनोदी रहे। जैन धर्म की चर्चा कहै। अगरवाल जैनो शुभ वंस । गर्ग गोत प्रगट्यो सरहंस ।। वही। ४. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, संख्या ५२२।१, पृ० ५१५ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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