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________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य ३१७ मोतिन की लड़ शोभित है छबि देखि लजें बनिता सब गोरी। लाल विनोदी के साहिब के मुख देखन को दुनियां उठ दौरी ॥" ऐसा प्रतीत होता है जैसे विनोदोके साहबको देखनेके लिए दुनिया आज भी उठकर दौडी चली आ रही है। 'उठ दोरी' में देखनेकी ऐसी व्याकुलता है, जो देखते ही बनती है। पशुओके करुण-क्रन्दनको सुनकर नेमिकुमार उदास हो गये। उनके हृदयमे जीव मात्रका कल्याण करनेकी भावना उदित हुई। किन्तु इसके लिए असीम आत्मिक बलकी आवश्यकता थी। उसे सम्पन्न किये बिना दूसरोका कल्याण कैसे हो सकता है। एतदर्थ ही वे गिरिनारपर तप करने चले गये। उस समयका दृश्य देखिए, "नेम उदास भये जब से कर जोड़ के सिद्ध का नाम लियो है। भम्बर भूषण डार दिये सिर मौर उतार के डार दियो है॥ रूप धरौ मुनि का जबहों तबही चढ़ि के गिरिनारि गयो है । लाल विनोदी के साहिब ने तहां पांच महाव्रत योग लयो है ॥" उदासीनताको लहरके आते ही उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान् सिद्धको नमस्कार किया, जैसे मानो उनकी कृपासे ही यह उत्तम भाव उत्पन्न हुआ हो। वस्त्राभूषण उतार फेंके और वह मौर भी धराशायी हो गया, जो विवाहका प्रतीक था। मुनिका रूप धारण कर पंच महाव्रत ले लिये। ___"वर द्वारसे ही तो लौट गया, भांवरें तो नहीं पड़ने पायी, अतः राजुलको अन्य पति चुननेका अधिकार है।"- माता पिताके ऐसा कहते ही राजुलकी भौं कुंचित हो उठी । उसने फटकारते हुए कहा, "काहे न बात सम्हाल कहो तुम जानत हो यह बात भलो है। गालियां काढत हो हमको सुनो तात भली तुम जीम चली है। मैं सबको तुम तुल्य गिनो तुम जानत ना यह बात रली है। या भव में पति नेमप्रभू वह लाल विनोदी को नाथ बली है ॥" माँ-बापको फटकारना कोई अच्छी बात नहीं है। वे जो कुछ भी कह रहे थे, अपनी समझसे तो भलेकी ही कह रहे थे। किन्तु राजुल भी क्या करे, उसे दुःख था कि उसीके मां-बाप, उसे जानकर भी न जान पाये। उन्हे अपनी पुत्रीके साधारण भोग-जन्य सुखका ही ध्यान था। किन्तु राजुलने तो विवाहको पवित्रबन्धन माना था, भोगका सहारा नहीं। मनमें एक बार जिसे पति मान लिया जीवन-भर वह ही रहेगा। पति कुछ भी करे। नारीके इस पावन आदर्शपर
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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