________________
३१८
हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
आघात करनेवाला कोई भी क्यों न हो, राजुल खरी-खोटी सुनाये बिना नही रह सकती । उसमें माँ-बापका ध्यान भी भुला देना होता है । पण्डित रामचन्द्र शुक्लने इसीको बड़े धर्म के लिए छोटे धर्मको न्योछावर कर देनेकी बात कही है। वह यहाँ पूर्ण रूपसे घटित होती है ।
राजुल पच्चीसी
अनेकानेक भण्डारोमे इसकी प्रतियाँ मौजूद है। बीकानेर के अभय जैन पुस्तकालयमे जो प्रति है, वह वि० सं० १७८२ मगसिर बदी ६ को लिखी हुई है । जयपुर के बीचन्दजीके दिगम्बर जैन मन्दिरके गुटका नम्बर १६१ मे इसकी जो प्रति निबद्ध है, वह वि० सं० १७९३ की लिखी हुई है । जयपुरके ही ठोलियोंके दिगम्बर जैन मन्दिरमे वेष्टन नम्बर १९९ मे बंधी हुई 'राजुल पच्चीसी' वि० सं० १७६९ की लिखी हुई है। श्री मन्दिर जी कूंचा सेठ, दिल्लीके शास्त्र भण्डार के वेष्टन नं० ३०४मे इसकी एक प्रति मौजूद है। इस काव्यमे नेमिनाथ और राजुलका भावमय चित्र अंकित है ।
नेमजी रेखता
२
इसकी प्रति बीकानेर के अभय जैन पुस्तकालयमे मौजूद है। इसकी भाषापर उर्दू-फारसीका अधिक प्रभाव है । फरजन्द, विलन्दसीस, फुरमाया, खुसदिल आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है । इसमे नेमीश्वरके विवाहार्थ आनेसे लेकर राजुलके स्त्रीलिंगको छेदकर स्वर्ग जाने तककी विविध बातें है । मुक्तक छन्दोमे ही सब कुछ कहा गया है । अतः इस रचनामे मुक्तक और खण्डकाव्य दोनों ही का आनन्द सन्निहित है । गीतावलीकी भांति उसमे मुक्तकता है और कथाका प्रवाह भी । आदि अन्त देखिए,
आदि
" समुदविजय का फरजंद व्याहने को आपने नेमनाथ खूब वनरा कहाया है 1 वखत विलंदसीस सेहरा विराजता है, जादोंराय पंजकोटि जान खूब लाया है ॥ यानवर देखिकै महरबान हुआ श्राप, इनको खलास करौ येही फुरमाया है । जाना है जिहान को दरोग है विनोदीलाल, गिरनार जाय भक्ति ऐसी चित लाया है"
१. पण्डित रामचन्द्र शुक्ल, मानसेकी धर्मभूमि, चिन्तामणि, पहला भाग, प्रयाग, १६५० ई०, पृ० २११ ।
१. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, उदयपुर, पृष्ठ १४५