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________________ ३२७ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ब्रह्मा विष्णु महेश्वर ध्यावें साधु सकल जिह के गुण गाचै । बिन जाने जिय चिर भव डोले __जिहि जानै छिन सिवपट खोले । व्रती अव्रती विध व्यौहारा सो तिहुंकाल करम सौ न्यारा ।। गुरु शिष्य उमय वचन करि कहिये । वचनातीत दसा तिस लहियै ॥ सुपर भेद को खेद न छेदा । भाप आप मैं आप निवेदा ॥ सो परमातम पद सुख दाता हौंह बिहारोदास विख्याता ॥" ८४. किशनसिंह (वि० सं० १७६३ ) इनके पितामह सिंगही कल्याण रामपुरके रहनेवाले थे। उनका वंश खण्डेलवाल और गोत्र पाटणी था। किसी तीर्थ यात्राके लिए संघ निकलवानेके कारण उन्हें 'संघी' कहा जाने लगा था। "सिंगही' उसीका बिगड़ा हुआ रूप है। आज भी ऐसोंके वंशधरोंको 'संघई जू' कहते है। सिंगही कल्याण अनेकानेक गुणोंके निधान थे, अतः उनका यश भी बहु बड़ा था। भगवान् जिनेन्द्रका पूजन और जिन-श्रुतका अध्ययन उनका नित्य-नैमित्तिक कर्म था। दान भी बहुत देते थे। उनके दो पुत्र थे - सुखदेव और आनन्दसिंह । भगवान् जिनेन्द्रके पदोंकी वन्दनासे सुखदेवके तीन 'सुनन्द' उत्पन्न हुए : थान, मान और किशन । किशन ही किशनसिंह बने । 'क्षेत्र विपाकी कर्म'के उदयसे वे 'निजपुर'को छोड़कर सागानेरमे १. खंडेलीवालं वंस विसालं नागरचालं देसथियं । देवनिवासं धर्मप्रकासं प्रगटकियं ॥ संगहीकल्याणं सबगुण जाणं गोत्र पाटणी सुजसलियं । पूजाजिनरायं श्रुतगुरुपायं नमैं सकति निज दाम दियं ॥१॥ पनक्रियाकोश, प्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, १९५०, पृ० २२० । २. तसु सुत दुय एवं गुरुमुखदेवं लहुरो आणंदसिंह सुणौ । सुखदेव सुनंदन जिनपदवंदन थान मान किसनेस सुणौ ॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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