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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि रहने लगे थे। उस समय वहाँ राजा सवाई जयसिंहका राज्य था। सब प्रजा सुखी और धन-धान्यसे पूर्ण थी। किशनसिंहका जीवन भी सुखमय था। उनका अधिकाश समय भगवान् जिनेन्द्रकी भक्ति और साहित्य-रचनामे व्यतीत होता था। उन्होने जो कुछ लिखा, हिन्दीमे हो लिखा। उनके हृदयमे जो कुछ था, भगवान् जिनेन्द्रके चरणोमें ही समर्पित हुआ। वे एक भक्त कवि थे, जिनकी भाषामें माधुर्य था और भावोमें स्वाभाविकता।
पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने उनकी केवल तीन रचनाओंका उल्लेख किया था : 'क्रियाकोश', 'भद्रबाहुचरित्र' और 'रात्रिभोजनकथा। अब राजस्थानके शास्त्र-भण्डारोंमें उनकी लगभग २० रचनाओं का पता लगा है। उनमें से अधिकांश जैन-भक्तिसे सम्बन्धित हैं। क्रिया-कोश
इसका निर्माण वि० सं० १७८४ में हुआ था। इसका प्रकाशन बहुत पहले हो जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय हीराबाग, बम्बईसे हो चुका है। इस ग्रन्थमे २९०० पद्य हैं, उनमे जैनोको धार्मिक क्रियाओंका उल्लेख है। रचना मौलिक है, किन्तु कविताको दृष्टिसे साधारण है । कुछ भक्तिसम्बन्धी पद्य हैं,
“समवसरन लक्ष्मी सहित, वर्द्धमान जिनराय । ममौ विवुध वंदित चरन, भविजन को सुषदाय ॥ वृषम आदि जिन आदि है, पारश लौं तेईस । मन वच काया पद पद्म, वंदों करि धरि सीस ॥
किसन इह कीनी कथा नवीनी निजहित वीनी सुरपद की। सुखदाय क्रिया भनि यह मनवचननि सुद्धपलें दुरगति पद की ॥२॥
वही, पृ० २२० । १. क्षेत्र विपाकी कर्म उदै जब आईया, निजपुर तजि के सांगानेरि वसाईया।
तह जिन धर्म प्रसादि गमैं दिन सुत लही, साधर्मीजनमानै दे हित गही ॥
वही। २. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृ० ६६ । ३. 'सत्रहसै संवत दौरासियाजु भादो मास,
वर्षारितिश्वेत तिथि पुन्यौ रविवार है।' वपनक्रियाकोश, प्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, पृ० २२१ ।